Sunday, January 30, 2011

"कभी "अलविदा" न कहना ....."



दुनिया में सबसे कीमती हैं आपके आंसू,
नैनों से कभी, इनको छलकने न देना ।
पलकों के बीच आकर भी अक्सर टूट जातें हैं,
"ख्वाबों" को अपने, बहुत संभालकर रखना ।
रिश्ते महकते हैं, "अपनेपन" के अहसास से ;
इनकी "खुशबुओं" को महसूस उम्रभर करना।
संग-संग- न चलना, चाहे बात न करना ।
एक ज़रा सी है गुज़ारिश, कभी "अलविदा" न कहना।

Sunday, January 23, 2011

"पेड़ से टूटे हुये सूखे पत्ते..."



मेरे बराबर वाली बिल्डिंग में ;
लगे हुए बादाम के पेड़ के
बहुत सारे सूखे पत्ते
मेरे कमरे के दरवाजे के सामने ,
आजकल रोज ही आ जाते हैं ।
आवाज़ देकर मुझे बुलाते हैं ।
फिर घंटों मुझसे बतियातें हैं ।
मेरे दिल की सुनते हैं ,
कुछ अपनी कहानी सुनाते हैं ।
पेड़ से टूटे यह "सूखे पत्ते" ,
इस अजनबी शहर में,
अपनेपन का अहसास दिला जाते हैं ।
मेर सच्चे दोस्त जो बन जाते हैं।
ना जाने कौन से रिश्तों में मुझे बाँध लिया है ।
पैरों के नीचे न आ जाये कहीं ;
अपने हाथों से समेट कर ,
एक सुरक्षित जगह रख देता हूँ।
मगर, समुन्दर से आनी वाली हवायें बहुत बेदर्द हैं ।
ना ही इनके मन में किसी के लिये दर्द है ।
समेटे हुए सारे पत्तों को ,
एक-एक करके बिखरा देती है ।
ना जाने कहाँ - कहाँ उड़ा देती है ।
समेट नहीं पाता फिर मैं उन पत्तों को ,
भीगे नैनों से उन्हें दूर जाते हुये ,
बस देखता रह जाता हूँ ।
हर बार की तरह ,
एक बार फिर से "तन्हा" हो जाता हूँ ।

Friday, January 21, 2011

"कुछ दिनों से "चांदनी" बहुत उदास है ..."



कुछ दिनों से "चांदनी" बहुत उदास है ।
इस बात का "चाँद" को अहसास है ।
गुज़रती है रात करवट बदल-बदल कर,
बिना कुछ कहे, सब कुछ समझने का अहसास है ।
गुमसुम सी रात है , ना जाने क्या बात है ।
रजनीगंधा सी महकती हुई किसी की याद है ।
कुछ दिनों से "चांदनी" बहुत उदास है ।
इस बात का "चाँद" को अहसास है ।
सारे तारे कुछ बोल रहे हैं ।
दिल का हाल पूछ रहे हैं ।
"चांदनी" मगर खामोश है ।
"चाँद" को पता है किस्सा सारा ,
भीगी पलकों ने कह दिया हाल सारा,
समुन्दर के शहर में, समुन्दरों सी प्यास है ।
कभी लगता है बहुत दूर है वह,
और कभी लगता है वो बहुत पास है ।
कुछ दिनों से "चांदनी" बहुत उदास है ।
इस बात का "चाँद" को अहसास है ।

Tuesday, January 18, 2011

"कल बड़े बेटे का ख़त मिला मुझे, लगता है सचमुच बड़ा हो गया है।"



कल बड़े बेटे का ख़त मिला मुझे, लगता है सचमुच बड़ा हो गया है।
लिखा है - छोटा भाई मेरा कहना मानने लगा है।
पहले आपकी उँगलियाँ पकड़कर चलते थे हम दोनों,
अब वह , मेरी ऊँगली पकड़कर चलने लगा है।
आपके पीछे हम कम झगड़ते हैं , सारे बातें ख़ुद ही निबटातें हैं।
हमे मालूम है, मम्मी हमारी शाम को किससे शिकायत करेगी ?
और यहाँ सब ठीक है मगर, मम्मी कभी-कभी बहुत उदास हो जाती है।
यूँ तो हँसा देते हैं हम उनको मगर,
तकिये में चेहरा छिपा कर फिर वो सो जाती हैं।
कल बड़े बेटे का ख़त मिला मुझे, लगता है सचमुच बड़ा हो गया है।
जब कभी चाचू , दादा जी का कहना नहीं मानते हैं,
उस दिन आप , सबको बहुत याद आते हैं।
आप थे तो आँगन में रखे पौधे भी,हर मौसम में हरे भरे रहते थे।
आप नहीं तो इन बरसातों में भी, सारे फूल मुरझाये से रहते हैं।
कल बड़े बेटे का ख़त मिला मुझे, लगता है सचमुच बड़ा हो गया है।
वैसे तो आपकी "बाइक" चलाना सीख गया हूँ मगर,
भीड़ भरी सड़कों पर आप बहुत याद आते हैं।
स्कूल की फीस , ख़ुद जमा कर देता हूँ
"रिपोर्ट कार्ड" पर भी मम्मी साइन कर देतीं हैं मगर,
"पेरेंट्स मीटिंग्स" में आप बहुत याद आते हैं।
और यहाँ सब ठीक है मगर.......
कल बड़े बेटे का ख़त मिला मुझे, लगता है सचमुच बड़ा हो गया है।
और पापा , कल तो "एच पी" की गैस भी बुक कराई मैंने
यूँ तो टेलीफोन और बिजली का बिल भी जमा कर सकता हूँ
मगर, घर से ज्यादा दूर मम्मी भेजती नहीं हैं।
यूँ तो मम्मी हर चीज दिला देती हैं, कभी-कभी हम जिद कर जाते हैं।
और यहाँ सब ठीक है मगर ........
"डेरी मिल्क " अब कम खा पाते हैं।
कल बड़े बेटे का ख़त मिला मुझे, लगता है सचमुच बड़ा हो गया है।
अक्सर , देर रात फ़ोन आपका आता है ।
हम जल्दी सो जाते हैं , मम्मी सुबह बताती हैं।
कभी दिन में भी फ़ोन किया करो, बच्चों की बातें सुना करो।
अच्छा , यह लिखना पापा अब कब आओगे ?
होली पर घर आ जाना ।
मम्मी को "रंग" अब नहीं भाते हैं।
"रंग" तो आप ही दिलाना।
होली पर घर आ जाना ।

Friday, January 14, 2011

"कविता लिखना कोई बड़ी बात नहीं है मगर..."

कविता हर किसी को सुनाई नहीं जाती,
दिल की बात, हर किसी से कही नहीं जाती।

कविता कहना कोई बड़ी बात नहीं है मगर,

कह देते है हम कविता तब,

जब दिल की बात लबों तक नहीं आती।

कविता,
हर किसी पर लिखी नहीं जाती,

अधूरे रहते है शब्द सारे कविता के,

पंक्तियाँ जब तक अपनेपन का अहसास नहीं पातीं।
कविता लिखना कोई बड़ी बात नहीं है मगर,

लिख पाते हैं हम कविता तब,

जब तक वो निगाहें ,
प्रेरणा बनकर दिल में बस नहीं जाती।

कविता, हर किसी को समझ नहीं आती

क्योकिं , दिल से लिखी जाती है
कविता
दिमाग से लिखी नही जाती,
दिल वाले ही लिखते है ,
दिल में रहने वालों पर कवितायें ,

यह दिल वालों की ऐसी बस्ती है,

दिल के सिवा कहीं
और बसाई नहीं जाती।

Wednesday, January 12, 2011

"कल शाम तन्हाइयों का आलम , कुछ इस कदर रहा .."



कल शाम तन्हाइयों का आलम ,
कुछ इस कदर रहा ।
कई घंटों तलक खुद ही मैं ,
अपने आप से बेखबर रहा ।
जाना था कहाँ, कदम गये किधर ।
ना जाने क्यों ,
रेत पर नगें पैर , मीलों चलता रहा ।
मैं इधर चलता रहा ,
सूरज उधर ढलता रहा।
कल शाम तन्हाइयों का आलम ,
कुछ इस कदर रहा ।
कई घंटों तलक खुद ही मैं ,
अपने आप से बेखबर रहा ।
यूँ तो कोई साथ नहीं था मेरे,
मगर ना जाने क्यों ,
मुझे यह महसूस होता रहा ।
कोई बार-बार मेरे पीछे आता रहा ।
मुड़ कर देखा जब भी मैंने,
कोई नहीं आता था नज़र।
बस उसके कदमो के निशान ,
आते थे मुझे नज़र ।
मगर अब मैं समझ गया था,
वह कोई अजनबी नहीं था।
किसी की यादों का साया था ।
कुछ नहीं कहा मैंने,
बस , अपने रस्ते चलता रहा ।
कल शाम तन्हाइयों का आलम ,
कुछ इस कदर रहा ।
कई घंटों तलक खुद ही मैं ,
अपने आप से बेखबर रहा ।

Sunday, January 9, 2011

"अजनबी शहर में, "अपनेपन" का अहसास हुआ है ..."




कुछ दिनों में मुझे यह आभास हुआ है ।
दूर समुन्दर , अब बहुत पास हुआ है ।
अजनबी शहर में, "अपनेपन" का अहसास हुआ है ।
सोचा था लौट जायेगें कुछ दिनों में ,
उम्रभर रहने का अब मन हुआ है ।
दूर समुन्दर , अब बहुत पास हुआ है ।
बे-इरादा जी रहे थे अब तक ,
अब कुछ कर गुजरने का मन हुआ है ।
अजनबी शहर में, "अपनेपन" का अहसास हुआ है ।
मिलना बिछुड़ना , फिर बिछुड़ कर मिल जाना ।
ज़िन्दगी में एक नया इत्तफाक हुआ है ।
कुछ दिनों में मुझे यह आभास हुआ है ।
दूर समुन्दर , अब बहुत पास हुआ है ।
अजनबी शहर में, "अपनेपन" का अहसास हुआ है ।


(फोटो आभार : गूगल के सौजन्य से)

Monday, January 3, 2011

"ऐ - वक्त मेरे, तू बार-बार मेरा इम्तहान क्यों लेता है .."



ऐ - वक्त मेरे, तू बार-बार मेरा इम्तहान क्यों लेता है ?
दो कदम आगे चलता हूँ, चार कदम पीछे कर देता है।
जब भी कश्ती उतारता हूँ, समुन्दर में तूफान खड़ा कर देता है।
ऐ - वक्त मेरे, तू बार-बार मेरा इम्तहान क्यों लेता है ?
एक-एक करके बड़ी लगन से , खुशियों के बीज बोता हूँ।
खिल भी ना पाते हैं फूल, कि हर मौसम को पतझड़ कर देता है।
ऐ - वक्त मेरे, तू बार-बार मेरा इम्तहान क्यों लेता है ?
मुस्कराते हुए लम्हे ना जाने कहाँ खो गये,
एक-एक करके सब मुझसे जुदा हो गये।
भीड़ भरी सड़कों पर भी तन्हा कर देता है।
ऐ - वक्त मेरे, तू बार-बार मेरा इम्तहान क्यों लेता है ?
बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ , हाले दिल बयां करना चाहता हूँ।
लिखने बैठता हूँ जब भी मगर, मुझे नि: शब्द कर देता है।
ऐ - वक्त मेरे, तू बार-बार मेरा इम्तहान क्यों लेता है ?