Monday, August 29, 2011

"चाहे, हौले-हौले चल ..."

अपने क़दमों पर कर भरोसा ,
एक ही रास्ते पर चल ।
चाहे, हौले-हौले चल ।
उबड़-खाबड़ देख कर,
रास्ता ना बदल ।
चाहे, हौले-हौले चल ।
गिरकर, संभलता चल ।
ठोकरों से सीखता चल ।
चाहे, हौले-हौले चल ।
रंग-बिरंगी कारें देख कर,
मन ना मचल ।
समय तेरा भी आयेगा ,
जरा सब्र तो कर ।
मिल ही जायेगी मंजिल,
आज , नहीं तो कल !
अपने क़दमों पर कर भरोसा ,
एक ही रास्ते पर चल ।
चाहे, हौले-हौले चल ।

Wednesday, August 24, 2011

"फिर एक बार क्या तुम आओगी ?"




नन्हें - नन्हें वो गुलाबी फूल, जो पसंद थे तुमको...
अपनी किताब में संभाल-संभाल कर,
सबसे छुपा कर रखती थी हर रोज़ एक फूल को ,
जैसे हजारों फूल हों , उस नन्हें से पौधे में
जितने भी तोड़तीं थी तुम,
उससे भी ज़्यादा खिल आते थे अगले दिन
आज वही गुलाबी फूलों का नन्हा सा पौधा,
मेरे घर के आँगन में फिर एक बार ,
कई बरसों बाद ना जाने ,
कैसे अपने आप खिलने लगा है।
कलियाँ भी आने लगीं हैं पौधे में,
बन के फूल , अब मुस्करायेंगी कुछ दिनों में।
"राज" बस यही सोचते हैं हर पल,
उन गुलाबी फूलों को चुराने, मेरे घर के आँगन में,
पहले जैसी दौड़ती हुई ना सही , दबे पाँव ही सही,
हकीकत में ना सही, ख्वाबों में ही सही,
अपने आँचल में उन फूलों को समेटने ,
एक बार फिर क्या तुम आओगी ?
पंखुडियों को किताबों में सजाने
फिर एक बार क्या तुम आओगी?

Thursday, August 18, 2011

"जब भी कभी तन्हा , महसूस करता हूँ मैं ..."





"जब भी कभी तन्हा , महसूस करता हूँ मैं ।
अपनी कविताओं से , बातें करता हूँ मैं ।
बातों में, फिर तेरा ज़िक्र करता हूँ मैं ।
ज़िक्र तेरा आते ही मेरी कविताओ के,
खामोश शब्द बोलने लगते हैं ,
फिर घंटों मुझसे , तेरी बातें करते हैं ।
मेरी कविताओं के शब्द तुमने ही तो रचे है
तुम्हारी ही तरह “शब्द” बहुत भावुक है ।
बातें मुझसे करते है , और नैनों से बरसते रहते है ।
जब भी कभी तन्हा , महसूस करता हूँ मैं ।
अपनी कविताओं से बातें करता हूँ मैं ।
अर्ध -विराम सहारा देतें है शब्दों को ,
मात्राएँ शब्दों के सर पर हाथ रखती हैं ।
हिचकियाँ लेते शब्दों को पंक्तियाँ दिलासा देतीं है ।
फिर सिसकियाँ लेते हुए शब्दों को ,
मैं सीने से लगाकर , बाहों में भर लेता हूँ,
शब्द मुझमे समां जाते है , मुझको रुला जाते है । "

Tuesday, August 16, 2011

"अजनबी शहर था, कब हो गया अपना पता ही ना चला..."





अजनबी शहर था, कब हो गया अपना पता ही ना चला।
एक फूल गुलाब का चाहा था,
कब बागवाँ हो गया अपना पता ही ना चला।
कल रात घना था अँधेरा, कहीं कुछ दिखता ना था।
किस ओर जाऊं मैं , यह सोच ही रहा था।
कब थाम लिया उसने मेरा हाथ आकर, पता ही ना चला।
लंबा था सफर, जाना था बहुत दूर ,
"राज" को सफर में हमसफ़र मिला खूबसूरत बहुत।
कब आ गई मंजिल, पता ही ना चला।
कुछ वर्षों से मेरी कविताओं को शब्द मिलते ना थे,
एक-दो पंक्तियों से आगे हम लिखते ना थे।
कब बन गई एक नई कहानी, पता ही ना चला ।

Tuesday, August 9, 2011

"यदि आँखों में किसी की, कोई नमी नहीं हैं..."




यदि आँखों में किसी की,
कोई नमी नहीं हैं।
धरती उस दिल की,
फिर उपजाऊ नहीं है।
संवेदनाओं का एक भी पौधा,
अंकुरित होता नहीं जहाँ,
ऐसा बंज़र जीवन,
जीने के योग्य नहीं हैं।