Friday, September 19, 2014

"ऐ - बारिशों.."

बिन बुलाये मेहमान की तरह ,
हर रोज़ चली आती हो,
मेरी प्रिय बारिशों,
अब तो लौट जाओ जरा।

शलभ गुप्ता "राज"
मुंबई

Saturday, July 19, 2014

"दिल के कागज़ पर.."

कल रात समुन्दर बहुत रोया है शायद, 
दोपहर तक किनारे की सारी रेत भीगी हुई थी। 
वह पढने लगे है अब मेरी कहानियाँ, 
दिल के कागज़ पर अब तक जो लिखी हुई थी । 
सुलझने लगी है अब ज़िन्दगी की पहेलियाँ , 
बरसों से अब तक जो उलझी हुई थी । 
एक डायरी के पन्नों को लगे हैं हम पलटने, 
एक जमाने से अलमारी में जो रखी हुई थी ।
( Shalabh Gupta "Raj")

Wednesday, July 16, 2014

"आप सबकी दुआओं में असर चाहिये..."


ना गुब्बारे, खिलोने, ना उसे मिठाई चाहिये।
हमसे ना उसको कोई तोहफा चाहिये ।
खुशियों का बस उसे साथ चाहिये ।
आप सबकी दुआओं में असर चाहिये ।
खूब भीगता है वह बारिशों के मौसम में ;
इन्द्रधनुष के रंगों को देखने के लिए मगर,
आखों में "उसे" रौशनी चाहिये।
आप सबकी दुआओं में असर चाहिये ।
लिखे हुए से ज़्यादा कोई जी सकता नहीं,
अपनी ज़िन्दगी के सारे लम्हें ,
चाहकर भी मैं उसे दे सकता नहीं...
बस में होता हमारे अगर,
फिर कोई कभी मरता नहीं,
कुदरत का कोई करिश्मा चाहिये।
आप सबकी दुआओं में असर चाहिये ।
हारना उसने ना सीखा है कभी,
मुस्कारते हुए जीता है वह हर लम्हें सभी,
ज़िन्दगी जीने की उस जैसी ,बस ललक चाहिये।
आप सबकी दुआओं में असर चाहिये 




Sunday, July 13, 2014

"मुंबई की बारिशें..."

[१]

बारिशों में भीगकर मुंबई सयानी हुई,
जैसे किसी के प्यार में दीवानी हुई !

[२]

पायल में घुँघरू छनकते हैं जैसे,
आसमां से बूँदें बरसती हैं ऐसे !

( शलभ गुप्ता "राज")

Tuesday, July 1, 2014

"पहले जैसे इन्द्रधनुष अब बनते नहीं हैं .."

ऐसा नहीं कि  बूंदों से मुझे प्यार नहीं है।
अब की बारिशों पर मुझे ऐतबार नहीं हैं।
आती हैं घटायें  किसी अजनबी की तरह।
पहले की तरह अब बरसती नहीं हैं।
बूंदों में  अपने पन का अहसास नहीं हैं।
पहले जैसे इन्द्रधनुष  अब बनते नहीं हैं।
ऐसा नहीं कि  बूंदों से मुझे प्यार नहीं है।
अब की बारिशों पर  मुझे ऐतबार नहीं हैं।
बदल गया है वक्त बदल गया ज़माना ,
खुले मन से अब "दोस्त" मिलते नहीं हैं ।
पहले जैसे इन्द्रधनुष अब बनते नहीं हैं ।

Sunday, June 29, 2014

"पुरानी किताब.."


शहर में रह कर भी अनजान सा हूँ ।
अपनों के बीच भी गुमनाम सा हूँ ।
पत्थरों का मोल लगाती है यह दुनिया,
हीरों के शहर में भी बे-भाव सा हूँ ।
सुबह हो न सकी जिस दिन की कभी,
उस दिन की ढलती शाम सा हूँ ।
वक्त की गर्द क्या चढ़ी नयी किताब पर,
दिखता आजकल पुरानी किताब सा हूँ।

(शलभ गुप्ता "राज")

Wednesday, June 11, 2014

मेघा..

Megh, Tum Kab Aaoge Mere Desh ?
Aapki Pratiksha Me Saansen Reh Gayi Shesh :)

मेघा , तुम कब आओगे मेरे देश ?
आपकी प्रतीक्षा में साँसें रह गयी शेष।

शलभ गुप्ता "राज" 

Monday, May 19, 2014

"पत्थर दिल.."

अक्सर ना जाने क्या टूटता है मुझमें ,
लोग तो कहते हैं पत्थर दिल है मेरा !
Aksar Naa Jaane Kya Tutta Hai Mujhme,
Log To Kehate Hain Patthar Dil Hai Mera !
( शलभ गुप्ता "राज")

Sunday, May 11, 2014

"माँ" सिर्फ एक शब्द नहीं...

"माँ" सिर्फ एक शब्द नहीं,
सम्पूर्ण जीवन का वृतांत है।
उससे ही है हमारा अस्तित्व ,
संसार में एक पहचान है।
हर दिन उनके लिए ख़ास है,
"माँ" का साथ, जिनके पास है।
माँ के लिए , एक ही दिन नहीं,
सारा जीवन उनके नाम है।
उससे ही है हमारा अस्तित्व ,
संसार में एक पहचान है।
(शलभ गुप्ता "राज")

Thursday, May 1, 2014

"घर अब खाली सा लगता है ...."

घर अब खाली सा लगता है ।
घर में नहीं, अब मन लगता है ।
ना जाने कैसी खामोशी है घर में ,
क्या हो गया यह कुछ ही दिन में ।
दिल है मगर धड़कन नहीं ,
साज है मगर आवाज़ नहीं ,
सब कुछ सूना सा लगता है ।
जीवन के इस नाजुक मोड़ पर,
आप साथ छोड़ कर चले गये । 
बीते लम्हें जब याद आते हैं ,
आखों में आंसुओं का मेला लगता है । 
सब कुछ सूना सा लगता है । 
घर में नहीं, अब मन लगता है। 
जीने को तो जी ही लेंगे हम मगर,
बिना आपके , यह जीवन 
अब बोझिल सा लगता है । 
घर अब खाली सा लगता है । 
घर में नहीं, अब मन लगता है ।

( मेरे पूज्य पिताश्री को समर्पित )

Sunday, April 13, 2014

"नये ज़ख्म..."

जो किसी के दर्द में शामिल नहीं हैं,

वो लोग दोस्ती के काबिल नहीं हैं ,

पुरानों ने दिये कुछ नये ज़ख्म,

नये दोस्तों की और ज़रूरत नहीं हैं।

(शलभ गुप्ता "राज")

Wednesday, February 26, 2014

"प्रेम-गीत ..."

खामोशियाँ बोलने लगीं हैं, 
"राज" सारे खोलने लगी हैं ,
कान्हा की बांसुरी के संग ,
गोपियाँ प्रेम-गीत गाने लगी हैं . "

Wednesday, February 19, 2014

"प्यास..."

बादल झूठे हो सकते हैं,
धरती की प्यास नहीं,
मुस्कराहटें झूठी हो सकती हैं,
मगर एहसास नहीं।  

Saturday, February 15, 2014

" धरोहर..."

वो फूल आज भी महकते हैं,
दिल में दीये आज भी जलते हैं,
तेरी दुआएँ हैं धरोहर मेरी,
तेरी यादों संग हम चलते हैं।  
( शलभ गुप्ता "राज")

Tuesday, February 11, 2014

"खुशबू..."

रूप बदल-बदलकर मुझसे मिलने आता है,
वो शख्स मुझसे ना जाने क्या चाहता है ?
जब भी उससे पूछा उसके आने का सबब,
बस खुशबू की तरह सांसों में घुल जाता है .
( शलभ गुप्ता "राज")

Sunday, February 9, 2014

"जज्बात..."

यूँ तो दुनिया देखी हैं हमने, हज़ारों लोगों से मिले हैं।
सच्चे जज्बात , बस बुजुर्गों की दुआओं में मिले हैं।  
( शलभ गुप्ता "राज")

" मोहब्बत..."

खामोश हूँ मगर बेखबर नहीं,
शायद मोहब्बत की  होती जुबां नहीं !

Friday, February 7, 2014

"दिल और धड़कन ..."

एक दिन अपने दिल से होकर नाराज़,
बातों-बातों में हमने उससे कह दिया।
ऐ दिल ना परेशान कर और धडकना छोड़ दे।
दिल बोला बड़े इत्मीनान से ,
छोड़ दूंगा मैं उस दिन धडकना ,
"राज" प्यार करना तू जिस दिन छोड़ दे।
 ( शलभ गुप्ता "राज")

"आयाम..."

नये लोग मिले नये ख्यालात मिले हैं।
मेरे शब्दों को नये अलंकार मिले हैं ।
जब से मिले हैं आप सब मुझे ,
जीने के मुझे नये आयाम मिले हैं।

Thursday, February 6, 2014

" राहें..."

ज़िन्दगी के घुमावदार रास्तों ,
संकरे मोड़ों के गुज़र जाने के बाद ,
दिखाई देने लगती हैं हमको ,
बड़ी-बड़ी और खुली राहें।

Wednesday, February 5, 2014

"दिल के दर्द.."

एक बार कहा था किसी ने  “बोलती हैं तस्वीरें”,
आज महसूस हुआ सच बोलती है तस्वीरें,
बिना कुछ कहे सब कुछ कह जाती है तस्वीरें ..
दिल के दर्द को आखों से बयां कर जाती हैं तस्वीरें 
- शलभ गुप्ता "राज"

Tuesday, February 4, 2014

"बसंत पंचमी...."

शब्दों का अतुल भण्डार दो माँ, हृदय को नये विचार दो माँ। इतना मुझ पर उपकार करो माँ। जीवन मेरा संवार दो माँ। अनुभूतियों को साकार दो माँ।
सृजन को व्यापक स्वरुप दो माँ। श्वेत पृष्ठों को इंद्रधनुषी कर दूँ, मेरे शब्दों को नये रंग दे दो माँ। "शलभ" को नये आयाम दो माँ। शब्दों का मुझे उपहार दो माँ। कुछ ऐसा लिखे मेरी लेखनी, पढ़कर सब निहाल हो जाएँ माँ।


तस्वीर- साभार गूगल


Monday, January 27, 2014

"अजनबी शहर था..."

अजनबी शहर था,
कब हो गया अपना पता ही ना चला।
एक फूल गुलाब का चाहा था,
कब बागवाँ हो गया अपना पता ही ना चला।
कल रात घनघोर थी बारिश, 
कहीं कुछ दिखता ना था।
किस ओर जाऊं मैं सोच ही रहा था।
कब थाम लिया उसने, 
मेरा हाथ आकर पता ही ना चला।
कुछ वर्षों से मेरी कविताओं को शब्द मिलते ना थे,
एक-दो पंक्तियों से आगे हम लिखते ना थे।
कब बन गई एक नई कहानी पता ही ना चला ।
( शलभ गुप्ता "राज")

Friday, January 17, 2014

"गुनगुनी धूप...."

मेरे बस में हो अगर,
कोहरे से भरे इन जाड़ों के मौसम में,
अपने शहर के लिए,
यहाँ से कुछ "गुनगुनी धूप" भेज दूँ !
( शलभ गुप्ता "राज")
- मुम्बई ( महाराष्ट्र )

Monday, January 13, 2014

"चलो, आज फिर मैं पतंग उडाऊं...."

चलो, आज फिर मैं पतंग उडाऊं ।
कुछ देर के लिये बचपन में लौट जाऊं ।
ज़िन्दगी के घटते हुए पलों को भूलकर,
गुज़रे हुए पलों को जोड़ लाऊं।
यूँ तो बहुत चंचल थी बचपन की हवायें
फिर भी बड़ा अदब करती थी हवायें।
नज़रों से ही बात समझ लेती थीं ,
तेज़ हवाओं में भी पतंगें डोर से बंधी रहतीं थीं।
अब ना वो पतंगें हैं ना वो हवायें हैं।
बहुत बे-अदब आज की हवायें हैं।
समझ कर भी बात नहीं समझतीं हैं।
एक हवा के झोके से ही पतंगें,
डोर से टूट जाया करती हैं ।
अनेकों रंगों में आज उड़ रही पतंगें।
बहुत बे-रंग हो रही आज पतंगें।
कहाँ से कहाँ आ गयीं सिरफिरी हवाओं संग ये पतंगें।
अपनी धरती अपना आकाश मांग रही पतंगें,
आज "केसरिया" और "हरी" हो रही पतंगें।
कैसे , आज फिर में दिल को अपने समझाऊं ?
इन हवाओं में, कैसे मैं पतंग उडाऊं ।

Monday, January 6, 2014

"कबीरमय ..."

आजकल कबीरमय हो गयी है ज़िन्दगी,
ढाई आखर के प्रेम में खो गयी है ज़िन्दगी ...

"कबीर महोत्सव मुम्बई - 2014 "