Monday, January 27, 2014

"अजनबी शहर था..."

अजनबी शहर था,
कब हो गया अपना पता ही ना चला।
एक फूल गुलाब का चाहा था,
कब बागवाँ हो गया अपना पता ही ना चला।
कल रात घनघोर थी बारिश, 
कहीं कुछ दिखता ना था।
किस ओर जाऊं मैं सोच ही रहा था।
कब थाम लिया उसने, 
मेरा हाथ आकर पता ही ना चला।
कुछ वर्षों से मेरी कविताओं को शब्द मिलते ना थे,
एक-दो पंक्तियों से आगे हम लिखते ना थे।
कब बन गई एक नई कहानी पता ही ना चला ।
( शलभ गुप्ता "राज")

Friday, January 17, 2014

"गुनगुनी धूप...."

मेरे बस में हो अगर,
कोहरे से भरे इन जाड़ों के मौसम में,
अपने शहर के लिए,
यहाँ से कुछ "गुनगुनी धूप" भेज दूँ !
( शलभ गुप्ता "राज")
- मुम्बई ( महाराष्ट्र )

Monday, January 13, 2014

"चलो, आज फिर मैं पतंग उडाऊं...."

चलो, आज फिर मैं पतंग उडाऊं ।
कुछ देर के लिये बचपन में लौट जाऊं ।
ज़िन्दगी के घटते हुए पलों को भूलकर,
गुज़रे हुए पलों को जोड़ लाऊं।
यूँ तो बहुत चंचल थी बचपन की हवायें
फिर भी बड़ा अदब करती थी हवायें।
नज़रों से ही बात समझ लेती थीं ,
तेज़ हवाओं में भी पतंगें डोर से बंधी रहतीं थीं।
अब ना वो पतंगें हैं ना वो हवायें हैं।
बहुत बे-अदब आज की हवायें हैं।
समझ कर भी बात नहीं समझतीं हैं।
एक हवा के झोके से ही पतंगें,
डोर से टूट जाया करती हैं ।
अनेकों रंगों में आज उड़ रही पतंगें।
बहुत बे-रंग हो रही आज पतंगें।
कहाँ से कहाँ आ गयीं सिरफिरी हवाओं संग ये पतंगें।
अपनी धरती अपना आकाश मांग रही पतंगें,
आज "केसरिया" और "हरी" हो रही पतंगें।
कैसे , आज फिर में दिल को अपने समझाऊं ?
इन हवाओं में, कैसे मैं पतंग उडाऊं ।

Monday, January 6, 2014

"कबीरमय ..."

आजकल कबीरमय हो गयी है ज़िन्दगी,
ढाई आखर के प्रेम में खो गयी है ज़िन्दगी ...

"कबीर महोत्सव मुम्बई - 2014 "