विशाल गगन में उड़ रहा एक पंछी अकेला ।
शाम होने को आई मगर,
कहाँ करे विश्राम , कोई नहीं उसका बसेरा।
वक्त ने काट दिए "पर" उसके,
होंसलों के परों से उड़ रहा , अब भी वह पंछी अकेला ।
उसके विशाल गगन में , ना सूरज है ना अब चंदा कोई ।
हर तरफ़ है बस अँधेरा ।
कहाँ करे विश्राम , कोई नहीं उसका बसेरा।
उड़ते- उड़ते ना जाने कैसे ,
यह कौन से शहर में आ गया वह ।
यूँ तो लाखों मकान है इस शहर में ,
और आसमान छूती इमारतें भी ।
जिस छत की मुंडेर पर सुकून से वह बैठ सके ,
घर उसके लिए एक भी ऐसा नहीं।
लहुलुहान है जिस्म उसका उड़ते-उड़ते,
लगता नहीं अब शायद ,
इस शहर में वह विश्राम कर पायेगा।
और साँसें इतनी भी बाकी नहीं,
कि वह वापस चला जायेगा।
उड़ते-उड़ते ही वह शायद , अब तो फ़ना हो जायेगा।
फिर यह शहर किसी नए पंछी की तलाश में,
फिर से आसमान में देखने लग जायेगा।
फिर यह शहर किसी नए पंछी की तलाश में,
ReplyDeleteफिर से आसमान में देखने लग जायेगा।
अंतिम पंक्तियाँ दिल को छू गयीं ,बहुत सुन्दर रचना, बधाई .....
@ Sunil Kumar Ji : Zindagi Ke Halat Shabdon Me Bayan Kar Baithe.... Aapko Meri Panktiyan Pasand Aayi ..Aapa Dil Se Shukriya...
ReplyDeletegahan anubhootee kee lajawab abhivykti .
ReplyDelete@ Apanatva Ji : Jo Ab Tak Mehsoos Kiya Hai, Bas Vahi Likha Hai Maine.... Aapke Shabd Mujhe Hamesha Ek Nayi Urza Pradaan Karte Hai....
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