हमारा क्या है साहब ,
हम तो बस पुरुष हैं।
अरे कौन मनाता है,
हमारा दिन ?
कोई नहीं मनाता,
हमारा दिन।
क्या हमारा भी,
कोई दिन होता है।
अरे हमें तो,
अपनी पसंद के,
कपड़ें पहनने का भी,
अधिकार नहीं।
हम तो,
खुद भी नहीं मनाते हैं।
आप तो सब जानते हैं,
गरीब का
कोई दिन नहीं होता।
हमारा दिन क्या मनाना ?
और कौन हमें मनाता है।
मनाना तो छोड़िये जनाब,
अरे हमें तो,
रूठने का भी,
अधिकार नहीं।
(अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस १९ नवंबर पर रचित कविता)
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