Tuesday, June 7, 2011

"दिखता आजकल पुरानी किताब सा हूँ ...."





शहर में रह कर भी गाँव सा हूँ ।
अपनों के बीच भी गुमनाम सा हूँ ।
पत्थरों का मोल लगाती है यह दुनिया,
हीरों के शहर में भी बे-भाव सा हूँ ।
सुबह हो न सकी जिस दिन की कभी,
उस दिन की ढलती शाम सा हूँ ।
वक्त की गर्द क्या चढ़ी नयी किताब पर,
दिखता आजकल पुरानी किताब सा हूँ।

6 comments:

  1. @ Sushma Ji: Aap Bhi Bahut achcha Likhti Hain... Aapki Kavitayen Padi Hain Hamne....

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  2. पत्थरों का मोल लगाती है यह दुनिया,
    हीरों के शहर में भी बे-भाव सा हूँ ।

    बहुत सुंदर भाव...

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  3. @ Veena Ji : Aapka Bahut-Bahut Shukriya...,

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  4. शैलाभ गुप्ता जी
    सादर वंदे मातरम्!

    वक्त की गर्द क्या चढ़ी नयी किताब पर,
    दिखता आजकल पुरानी किताब सा हूं


    वाह जी … हर गहमागहमी से अछूती अलग पोस्ट …
    अच्छी कविता !

    वक़्त की ग़र्द चढ़ते न चढ़ते हिंदुस्तान का आम नागरिक भी 4 जून की आधी रात का बर्बरतापूर्वक किया सरकारी दमन भूल ही जाएगा … फूलो फलो भ्रष्टाचार

    कभी समय मिले तोशस्वरं
    पर पधारिए …
    आपका हार्दिक स्वागत है


    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  5. @ Rajendraa Ji : Aapka Hradey Se Atyant Abhaar, Mere Blog Pariwar Me Aapka Swagat Hai...

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