शहर में रह कर भी गाँव सा हूँ ।
अपनों के बीच भी गुमनाम सा हूँ ।
पत्थरों का मोल लगाती है यह दुनिया,
हीरों के शहर में भी बे-भाव सा हूँ ।
सुबह हो न सकी जिस दिन की कभी,
उस दिन की ढलती शाम सा हूँ ।
वक्त की गर्द क्या चढ़ी नयी किताब पर,
दिखता आजकल पुरानी किताब सा हूँ।
waah1 bhut khub likha apne...
ReplyDelete@ Sushma Ji: Aap Bhi Bahut achcha Likhti Hain... Aapki Kavitayen Padi Hain Hamne....
ReplyDeleteपत्थरों का मोल लगाती है यह दुनिया,
ReplyDeleteहीरों के शहर में भी बे-भाव सा हूँ ।
बहुत सुंदर भाव...
@ Veena Ji : Aapka Bahut-Bahut Shukriya...,
ReplyDeleteशैलाभ गुप्ता जी
ReplyDeleteसादर वंदे मातरम्!
वक्त की गर्द क्या चढ़ी नयी किताब पर,
दिखता आजकल पुरानी किताब सा हूं
वाह जी … हर गहमागहमी से अछूती अलग पोस्ट …
अच्छी कविता !
वक़्त की ग़र्द चढ़ते न चढ़ते हिंदुस्तान का आम नागरिक भी 4 जून की आधी रात का बर्बरतापूर्वक किया सरकारी दमन भूल ही जाएगा … फूलो फलो भ्रष्टाचार
कभी समय मिले तोशस्वरं
पर पधारिए …
आपका हार्दिक स्वागत है
- राजेन्द्र स्वर्णकार
@ Rajendraa Ji : Aapka Hradey Se Atyant Abhaar, Mere Blog Pariwar Me Aapka Swagat Hai...
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