Tuesday, August 16, 2011

"अजनबी शहर था, कब हो गया अपना पता ही ना चला..."





अजनबी शहर था, कब हो गया अपना पता ही ना चला।
एक फूल गुलाब का चाहा था,
कब बागवाँ हो गया अपना पता ही ना चला।
कल रात घना था अँधेरा, कहीं कुछ दिखता ना था।
किस ओर जाऊं मैं , यह सोच ही रहा था।
कब थाम लिया उसने मेरा हाथ आकर, पता ही ना चला।
लंबा था सफर, जाना था बहुत दूर ,
"राज" को सफर में हमसफ़र मिला खूबसूरत बहुत।
कब आ गई मंजिल, पता ही ना चला।
कुछ वर्षों से मेरी कविताओं को शब्द मिलते ना थे,
एक-दो पंक्तियों से आगे हम लिखते ना थे।
कब बन गई एक नई कहानी, पता ही ना चला ।

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