ना कभी,
सोने की चमक ने,
भरमाया मुझे।
ना कभी,
चांदी की चांदनी ने।
इस अजनबी दुनिया में,
तुम्हारा ही साथ बस,
आज तक भाया मुझे।
पता नहीं कैसा हूं मैं,
शायद, ऐसा ही हूं मैं।
ना रंगों की पहचान मुझे,
ना ब्रांडेड कपड़ों का,
है शौक मुझे।
ना अच्छे जूतों की,
पहचान मुझे।
दर्जी के सिले हुए,
कपडें ही अक्सर,
पहनता हूं मैं।
पता नहीं कैसा हूं मैं,
शायद, ऐसा ही हूं मैं।
मोटी मोटी किताबें,
नहीं पढ़ी मैंने।
बड़ी बड़ी डिग्रियां भी,
नहीं हैं पास मेरे।
हां बस,
लोगों के चेहरों को,
अच्छी तरह से,
पढ़ लेता हूं मैं।
पता नहीं कैसा हूं मैं,
शायद, ऐसा ही हूं मैं।
महफिलों का भी,
शौक नहीं है मुझे।
ना ही मंचों से,
कविता पढ़ने का।
अपनी लिखी कविताएं,
तुमको ही तो,
बस सुनाता हूं मैं।
भीड़ में भी अक्सर,
तन्हा रह जाता हूं मैं।
पता नहीं कैसा हूं मैं,
शायद, ऐसा ही हूं मैं।
हर रोज,
"good morning",
के मैसेज नहीं करता मैं।
जो मेरा है,
मेरा ही रहेगा।
हर दिन जताने की,
आदत नहीं है मुझे।
पता नहीं कैसा हूं मैं,
शायद, ऐसा ही हूं मैं।
व्हाट्सएप और मेसेंजर पर,
कितनी भी चैट कर लूँ।
जब तक न सुनूँ आवाज़,
दिन में एक बार मैं,
अच्छा नहीं लगता मुझे।
पता नहीं कैसा हूं मैं,
शायद, ऐसा ही हूं मैं।
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© शलभ गुप्ता