Tuesday, October 31, 2023

"शायद, ऐसा ही हूं मैं.."

ना कभी, 
सोने की चमक ने,
भरमाया मुझे। 
ना कभी,
चांदी की चांदनी ने।
इस अजनबी दुनिया में,
तुम्हारा ही साथ बस,
आज तक भाया मुझे।
पता नहीं कैसा हूं मैं,
शायद, ऐसा ही हूं मैं।
ना रंगों की पहचान मुझे,
ना ब्रांडेड कपड़ों का,
है शौक मुझे।
ना अच्छे जूतों की,
पहचान मुझे।
दर्जी के सिले हुए,
कपडें ही अक्सर,
पहनता हूं मैं।
पता नहीं कैसा हूं मैं,
शायद, ऐसा ही हूं मैं।
मोटी मोटी किताबें, 
नहीं पढ़ी मैंने।
बड़ी बड़ी डिग्रियां भी,
नहीं हैं पास मेरे।
हां बस,
लोगों के चेहरों को, 
अच्छी तरह से,  
पढ़ लेता हूं मैं।
पता नहीं कैसा हूं मैं,
शायद, ऐसा ही हूं मैं।
महफिलों का भी,
शौक नहीं है मुझे।
ना ही मंचों से,
कविता पढ़ने का।
अपनी लिखी कविताएं,
तुमको ही तो,
बस सुनाता हूं मैं।
भीड़ में भी अक्सर,
तन्हा रह जाता हूं मैं।
पता नहीं कैसा हूं मैं,
शायद, ऐसा ही हूं मैं।
हर रोज,
"good morning",
के मैसेज नहीं करता मैं।
जो मेरा है,
मेरा ही रहेगा।
हर दिन जताने की,
आदत नहीं है मुझे।
पता नहीं कैसा हूं मैं,
शायद, ऐसा ही हूं मैं।
व्हाट्सएप और मेसेंजर पर,
कितनी भी चैट कर लूँ। 
जब तक न सुनूँ आवाज़,
दिन में एक बार मैं, 
अच्छा नहीं लगता मुझे। 
पता नहीं कैसा हूं मैं,
शायद, ऐसा ही हूं मैं।

सर्वाधिकार सुरक्षित : 
© शलभ गुप्ता 

Wednesday, October 25, 2023

"दो कप चाय.."

शायद,
आज तक,
चाय बनानी, 
नहीं आयी मुझे। 
एक कप बनाता हूँ,
मगर,
हमेशा की तरह,
दो कप,
बन जाती है मुझसे। 
आधा कप पानी, 
को उबालकर,
उसमे फिर,
आधा कप दूध,
मिलाकर,
आधा चम्मच चीनी,
एक चम्मच पत्ती और,
थोड़ा अदरक डालकर, 
ही तो बनाता हूँ चाय। 
फिर भी,
दो कप चाय,
बन जाती है। 
पता नहीं क्यों ?
श्रीमती जी,
चाय पीती नहीं।
दोस्त बहुत मसरूफ रहते हैं,
अपने कारोबार में। 
मिलने अब आते नहीं। 
फिर भी दो कप चाय,
बन जाती है मुझसे। 
पता नहीं क्यों ?
यूँ तो कोई आएगा नहीं,
अब मिलने मुझसे। 
इंतज़ार भी नहीं है,
किसी का अब मुझे। 
कोई आने वाला भी नहीं है,
फिर भी ना जाने क्यों,
दो कप चाय,
बन जाती है मुझसे। 
पता नहीं क्यों ?  

Wednesday, October 18, 2023

मेरे हिस्से की सांसें ..

शायद बहुत कुछ,
बाकी है अभी। 
मेरे हिस्से की,
गुनगुनी धुप,
मेरे हिस्से की सांसें। 
शायद लिखनी है अभी,
कुछ नई प्रेम कवितायेँ। 
शायद मिलना है अभी,
कुछ नए दोस्तों से,
करनी है उनसे,
ढेर सारी बातें। 
शायद किसी दिन,
चलना है मुझे,
संग तुम्हारे,
समुंदर किनारे,
देर तलक। 
एक जीवन में मिला,
मुझे दूसरा जीवन। 
बहुत कुछ बदल गया,
इस एक वर्ष में। 
शुक्रिया ज़िन्दगी। 
शायद कहना है,
अभी बहुत कुछ,
शेष लिखूंगा फिर बातें।    

कुछ लोग..

बिना मिले, बिना देखे हुए,
कभी कभी, कुछ लोग,
ना जाने कब,
धीरे धीरे हमारी,
ज़िन्दगी बन जाते हैं। 
हम जान भी नहीं पाते हैं। 
चाहे उनसे बात हो,
या न हो फिर भी,
जीने का सबब,
बन जाते हैं। 
मिले नहीं कभी मगर,
फिर भी अक्सर याद आते हैं। 
कभी कभी, कुछ लोग,
ज़िन्दगी बन जाते हैं।  

(शेष फिर... अगली कविता में.)

माँ, तुम कहाँ हो ?

माँ, तुम कहाँ हो ?
मैं जानता हूँ आप,
कई वर्ष पूर्व हम सबसे,
बहुत दूर चले गए हो। 
तुम्हारे हाथ के बने स्वेटर ही,
तो पहनते थे हम बचपन में। 
सर्दियों का मौसम आने को है,
थोड़ा बीमार भी रहता हूँ अब,
ठण्ड भी कुछ ज़्यादा ही लगती है। 
आपका आशीर्वाद और,
दवाइयों का डिब्बा अब,
मेरे साथ साथ चलता है। 
तुम तो सब जानती हो माँ,
मुझे बाजार की चीजें पसंद नहीं,
रेडीमेड गर्म कपड़ों में भी,
वो बात नहीं आती है। 
चाहे सपनों में ही आ जाना,
अपने हाथों से मेरे लिए,
एक "स्वेटर" बुन जाना। 


समुन्दर के शहर में..

ना जाने क्या बात है,
इस समुन्दर के शहर में। 
जितना भूलना चाहो,
उतना याद आता है।  

शाम की "चाय"

कुछ इस तरह से भी,
साथ निभाती है ज़िन्दगी। 
शाम की "चाय" बनकर,
जब मिल जाती है ज़िन्दगी। 

Thursday, October 12, 2023

"अपनों की आवाजें,.."

व्हाट्सअप के,
इस दौर मैं,
अपनों की आवाजें,
कहीं गम हो गई हैं। 
कुछ दिनों के लिए ही सही,
यह बंद हो जाये,
तब शायद,
हम दोस्तों से,
बातें कर पाएं,
उनकी आवाज को,
हम सुन पाएं।  

Thursday, October 5, 2023

"सच्चे दोस्त.."

इस मतलबी दुनिया में,
झूठे हैं सब रिश्ते सारे। 
सच कहते हो "शलभ",
बेजुबां हैं सच्चे दोस्त हमारे। 



Monday, October 2, 2023

"अनुवाद.."

सरल है बहुत किसी के,
शब्दों का अनुवाद करना। 
ख़ामोशी को समझना "शलभ",
हर किसी के बस की बात नहीं। 

विगत ३० सितम्बर को अनुवाद दिवस था,
तब यह पंक्तियों का सृजन हुआ।