Wednesday, December 18, 2019

तेरे वास्ते..

तेरे वास्ते,
इश्क़ की गुनगुनी धूप  लाया हूँ।
सुना है,
तेरे दिल का मौसम सर्द बहुत है। 

Monday, December 9, 2019

"राक्षसी धुएं ..

देख लिया ना !
क्या मिला तुम्हें ?
बड़े शहर में आकर।
कंक्रीट के जंगल में,
10 X 10 की बंद कोठरी।  
कारखानों से निकलते हुए,
इस राक्षसी धुएं के सिवा। 
तुम्हारे माता - पिता को,
तुम्हारी जली हुई लाशों के सिवा।
कुछ दिन शोर शराबा होगा,
एक दूसरे पर दोषारोपण होगा। 
लाशों के जलते ढेर पर अब, 
कुछ दिन राजनैतिक रोटियां सिकेंगी। 
सरकारी विभागों के साथ फिर,
कुछ कागज़ी कार्यवाही होगी।
मिलने वाले "मुआवज़े" से फिर,
गरीबों की आवाज़ दब जायेगी।
कुछ दिनों बाद मीडिया को फिर,
नई ब्रेकिंग न्यूज़ मिल जायेगी।
जो चले गए अब लौट सकते नहीं,
जो बचे हैं, सँभल सकते हैं।
अब भी कुछ नहीं बिगड़ा,
वापस लौट आओ तुम। 
अपने गाँव में भी है रोटी,
महानगर की तंग गलियों से निकलकर, 
लौट चलो अपने घर की ओर।
कड़वे नीम की ठंडी छांव और,
कुएं के मीठे पानी की ओर।

"घर"

"घर", घर नहीं रहे,
"मकान" हो गए हैं।
दिखावटी रिश्तों का,
सामान हो गए हैं।
चार दीवारी में हैं,
अब कई दीवारें।
संवेदनाओं का,
एक भी पौधा,
अंकुरित होता नहीं,
अब आँगन में।
"घर", घर नहीं रहे,
रेगिस्तान हो गए हैं। 

Tuesday, December 3, 2019

शायद, अब तुम कम याद आते हो...

आजकल कविता हम लिखते नहीं,
डायरी के पन्नों को अब पलटते नहीं,
शायद, अब तुम कम याद आते हो।
फोन की रिंग पर अब चौंकते नहीं,
व्हाट्सप्प कई दिनों अब देखते नहीं,
शायद, अब तुम कम याद आते हो।
सांझ ढले अब गज़लें सुनते नहीं,
रातों को करवटें अब बदलते नहीं,
शायद, अब तुम कम याद आते हो। 

"माँ"

बच्चे नहीं जानते,
कि बच्चे क्या होते हैं।
दर्द होता है उनको,
नैन माँ के बरसते हैं।
दर्द में भी रात को,
सकूं से सो जाते हैं।
बच्चों के सिर को जब,
माँ के जादुई हाथ दुलारते हैं।
बोल  नहीं पाते हैं तो क्या,
माँ की लोरी को तो बस,
नन्हें बच्चे ही समझते हैं।
कितना ज़रूरी है घर में,
एक अदद "माँ" का होना।
इस बात की अहमियत को ,
घर के सब लोग समझते हैं।