Sunday, February 28, 2010

"सात रंगों से बनता है खुशियों का इन्द्रधनुष .."

मेरे सभी सम्मानित मित्रों को होली की हार्दिक शुभकामनाएँ.....
खुशियों के इन्द्रधनुष आप सभी के जीवन में हमेशा रंग भरते रहें.....

पहला रंग प्यार का ,
दूजा रंग सदभाव का,
तीजा रंग कर्म का ,
चौथा रंग परोपकार का,
पाँचवा रंग न्याय का,
छठा रंग समरसता का ,
सातंवा रंग ख़ुशी का ।

सात रंग ज़िन्दगी के , सात रंग सपनों के ।
सात रंगों से बनता है खुशियों का इन्द्रधनुष ।

(आभार अमर उजाला Dt. 28 Feb 2010)

Thursday, February 25, 2010

"होली के दिन करीब आने लगे ..."



होली के दिन करीब आने लगे ।
बच्चे अभी से रंग लगाने लगे ।
रंग-बिरंगी पिचकारियों से बाज़ार सजने लगे ।
देखकर बच्चे खुश होने लगे ।
होली के दिन करीब आने लगे ।
अबीर-गुलाल हवा में बिखरने लगे ।
रंग की फुहार , मस्ती का हुडदंग ...
गली-गली में ढोल बजने लगे ।
होली के दिन करीब आने लगे ।
हर घर में पकवान बनने लगे ।
बच्चे रसोई के चक्कर लगाने लगे ।
मम्मी की बनाई हुयी गुझियों को,
छुप-छुप कर अभी से सब खाने लगे।
होली के दिन करीब आने लगे ।
इस त्यौहार की बात है निराली,
दुश्मन भी हमें अपना सा लगे।
भगवान् मेरे, प्रार्थना करो मेरी स्वीकार ...
हमारे देश के त्योहारों को ,
किसी की नज़र ना लगे ।

Wednesday, February 24, 2010

"वर्ष गुज़र रहे निरंतर ...."

वर्ष गुज़र रहे निरंतर ,
धीरे- धीरे कम हो रहा अन्तर ।
टेडी - मेडी जीवन की रेखायें ,
कब होंगी सामानांतर।
भविष्य से जुडा हुआ वर्तमान है,
दिन के उजाले में भी कितना अन्धकार है ।
कई यक्ष प्रश्नों के,
मै आज भी ढूंढ रहा उत्तर।
वर्ष गुज़र रहे निरंतर ,
धीरे- धीरे कम हो रहा अन्तर,
ना जाने कब कैसे ,
कहानी बन गई ज़िन्दगी की,
कुछ ही रीलें शेष है,
कब का बीत गया मध्यांतर ।
बनना चाहा अविरल धारा मैंने,
पहाडों पर भी रस्ते बनाये मैंने,
पहुचें जो मंजिल के करीब,
सूख गयीं सब नदियाँ और समुन्दर।
वर्ष गुज़र रहे निरंतर ,
धीरे- धीरे कम हो रहा अन्तर ।

Wednesday, February 17, 2010

"कोई तुमको कुछ कहता है, दर्द मुझे क्यों होता है ?"

कोई तुमको कुछ कहता है,
दर्द मुझे क्यों होता है ?
अपनेपन का अहसास हो जहाँ ,
शायद ऐसा तब होता है।
इस अजनबी दुनिया में,
हर कोई नहीं अपना होता है।
सुख-दुःख मिलकर बाँटे जिनसे,
वो ही बस अपना होता है।
कोई तुमको कुछ कहता है,
दर्द मुझे क्यों होता है ?
खून के रिश्तों से गहरे हैं मन के बंधन ,
बंधा है इन बंधनों में जो
वो इंसान बड़ा खुशनसीब होता है।
ऐसा क्यों मेरे साथ हर बार होता है ?
समझता है जिसे दिल अपना ,
वही क्यों नजरों से दूर होता है।
कोई तुमको कुछ कहता है,
दर्द मुझे क्यों होता है ?
जरा सी बात पर छलक जाते हैं आंसू ,
दर्द मुझसे अब किसी का,
बर्दशास्त नहीं होता है।
चोट लगे तुमको,
रोने लगती हैं आँखें मेरी .......
यह अहसास भी ,
हर किसी को नहीं नसीब होता है।
कोई तुमको कुछ कहता है,
दर्द मुझे क्यों होता है ?

Monday, February 15, 2010

"विस्फोट होते रहे, बेगुनाह मरते रहे ..."

हर बार की तरह,
विस्फोट होते रहे, बेगुनाह मरते रहे।
सांप डस कर चला गया, वह लकीर पीटते रहे।
हर बार की तरह,
विस्फोटों के बाद , वह तलाशी लेते रहे।
हादसे में मारे गये लोगों की लाशें दिखाकर ,
हर बार की तरह,
ये खबरी चैनल , T.R.P. की रोटियाँ सेंकते रहे।
विस्फोट होते रहे, बेगुनाह मरते रहे।
हर बार की तरह,
नेता बस भाषण देते रहे ।
गलतियाँ एक-दूसरे पर थोपते रहे।
विस्फोट होते रहे, बेगुनाह मरते रहे।
मरने वाले को बस दो लाख मिले,
खूनी की सुरक्षा में कई करोड़ खर्च होते रहे।
हर बार की तरह,
लोग दहशत में जीते रहे।
अपने ही आंसू पीते रहे।
ज़िन्दगी को मर-मर के जीते रहे।
अगले दिन बहुत से लोग ,
अखबार में छपी विस्फोटों की ,
रक्त-रंजित तस्वीरें देखते रहे।
और साथ में चाय की चुस्कियां लेते रहे।
हर बार की तरह,
विस्फोट होते रहे, बेगुनाह मरते रहे।
सांप डस कर चला गया, वह लकीर पीटते रहे।

Sunday, February 14, 2010

"किस की नज़र लग गयी हमारे वतन को..."

प्रेम का संगीत गूंजता था जहाँ ।
पुलिस का सायरन बज रहा वहां ।
किस की नज़र लग गयी हमारे वतन को,
बम-विस्फोट हो रहे बार-बार यहाँ।
रंगोली से सजाते हैं राज्य का हर घर जहाँ ।
खून की होली खेल रहा वो ना-पाक यहाँ।
अहिंसा का सन्देश दिया गाँधी ने दुनिया को,
कौन उनके देश में हिंसा फैला रहा बार-बार यहाँ।
साबरमती और यमुना के पावन जल में,

कौन विष घोल रहा बार-बार यहाँ।
एक चोट ठीक भी ना हो पाती है,
कि दूसरी उससे भी गहरी लग जाती है।

ना 1965 को भूले, ना भूले 1971 को हम।
ना अक्षरधाम को भूले, ना भूले संसद पर हमले को हम।
ना भूले मुंबई को हम, ना भूले जयपुर को हम।
ना भूले कश्मीर की लहुलुहान घाटी को हम।
कौन हमारे जिस्म को चोट पंहुचा रहा बार-बार यहाँ।
यूँ तो वैसे भी आतंकवाद के सताए हम हैं।
हौसले हुए हमारे फिर भी ना कम हैं।
ना इम्तहान लो यूँ बार-बार हमारा।
एक ही बार में ख़त्म कर देंगें किस्सा सारा।
कुछ ही फूल खिल पातें हैं चमन में,
कौन उस चमन को उजाड़ रहा बार-बार यहाँ।
कौन हमारे जिस्म को चोट पंहुचा रहा बार-बार यहाँ।

Monday, February 8, 2010

"चलो, आज फिर मैं पतंग उडाऊं ..."

चलो, आज फिर मैं पतंग उडाऊं ।
कुछ देर के लिये बचपन में लौट जाऊं ।
ज़िन्दगी के घटते हुए पलों को भूलकर,
गुज़रे हुए पलों को जोड़ लाऊं।

यूँ तो बहुत चंचल थी बचपन की हवायें
फिर भी बड़ा अदब करती थी हवायें।
नज़रों से ही बात समझ लेती थीं ,
तेज़ हवाओं में भी पतंगें , डोर से बंधी रहतीं थीं।
अब ना वो पतंगें हैं , ना वो हवायें हैं।
बहुत बे-अदब आज की हवायें हैं।
समझ कर भी बात नहीं समझतीं हैं।
एक हवा के झोके से ही पतंगें,
डोर से टूट जाया करती हैं ।
अनेकों रंगों में , आज उड़ रही पतंगें।
बहुत बे-रंग हो रही आज पतंगें।
कहाँ से कहाँ आ गयीं, सिरफिरी हवाओं संग ये पतंगें।
अपनी धरती अपना आकाश मांग रही पतंगें,
आज "केसरिया" और "हरी" हो रही पतंगें।
कैसे , आज फिर में दिल को अपने समझाऊं ?
इन हवाओं में, कैसे मैं पतंग उडाऊं ।

Thursday, February 4, 2010

"चाहे, हौले-हौले चल ...."



अपने क़दमों पर कर भरोसा ,
एक ही रास्ते पर चल ।
चाहे, हौले-हौले चल ।
उबड़-खाबड़ देख कर,
रास्ता ना बदल ।
चाहे, हौले-हौले चल ।
गिरकर, संभलता चल ।
ठोकरों से सीखता चल ।
चाहे, हौले-हौले चल ।
रंग-बिरंगी कारें देख कर,
मन ना मचल ।
समय तेरा भी आयेगा ,
जरा सब्र तो कर ।
मिल ही जायेगी मंजिल,
आज , नहीं तो कल !
अपने क़दमों पर कर भरोसा ,
एक ही रास्ते पर चल ।
चाहे, हौले-हौले चल ।