Saturday, August 22, 2009

क्या कसूर मेरा ?



जिन पहाडों पर था घर बसाया मैंने,
ज्वालामुखी के थे पहाड़ वो, क्या कसूर मेरा ?
जिन दरख्तों की छाँव में , मैं बैठा पल दो पल
बिना पत्तियों का था दरख्त वो, क्या कसूर मेरा ?
वक्त के तूफानों में भी कश्ती उतारी मैंने,
भावनाओं के भंवर से भी कश्ती निकाली मैंने,
कश्ती डूबी मगर उन किनारों पर आकर,
शांत और स्थिर दिखते थे जो, क्या कसूर मेरा ?
मन के उपवन में ब्रह्मकमल खिलाये थे मैंने,
वसंत ऋतु में पतझर ये कैसा आया ,
पंखुडियाँ भी चुभी शूल सी जो, क्या कसूर मेरा ?

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