Wednesday, February 24, 2010

"वर्ष गुज़र रहे निरंतर ...."

वर्ष गुज़र रहे निरंतर ,
धीरे- धीरे कम हो रहा अन्तर ।
टेडी - मेडी जीवन की रेखायें ,
कब होंगी सामानांतर।
भविष्य से जुडा हुआ वर्तमान है,
दिन के उजाले में भी कितना अन्धकार है ।
कई यक्ष प्रश्नों के,
मै आज भी ढूंढ रहा उत्तर।
वर्ष गुज़र रहे निरंतर ,
धीरे- धीरे कम हो रहा अन्तर,
ना जाने कब कैसे ,
कहानी बन गई ज़िन्दगी की,
कुछ ही रीलें शेष है,
कब का बीत गया मध्यांतर ।
बनना चाहा अविरल धारा मैंने,
पहाडों पर भी रस्ते बनाये मैंने,
पहुचें जो मंजिल के करीब,
सूख गयीं सब नदियाँ और समुन्दर।
वर्ष गुज़र रहे निरंतर ,
धीरे- धीरे कम हो रहा अन्तर ।

2 comments:

  1. bahut sunder bhavo kee abhivykti.......

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  2. बनना चाहा अविरल धारा मैंने,
    पहाडों पर भी रस्ते बनाये मैंने,
    पहुचें जो मंजिल के करीब,
    सूख गयीं सब नदियाँ और समुन्दर।
    वर्ष गुज़र रहे निरंतर ,
    धीरे- धीरे कम हो रहा अन्त
    जीवन और मृतु का अंतर वर्ष दर वर्ष कम होता जाता है .... एहसास मिट रहते हैं ... पर ये ही तो जीवन है .... अछा लिखा है ... गहरा लिखा है ...

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