जीवन में किसी को , ना कोई कष्ट पहुँचाये ।
पीर परायी जब अपनी बन जाये ।
निष्काम कर्मयोग की जागृत हो भावनायें ।
"प्रेम" और "त्याग" की अंकुरित हो संवेदनायें ।
मेरी नज़र में वही बस "सच्चा कर्म" कहलाये।
आओ, हम सब मिल कर इस धरती को स्वर्ग बनायें ।
I am Shalabh Gupta from India. Poem writing is my passion. I think, these poems are few pages of my autobiography. My poems are my best friends.
Thursday, July 22, 2010
Tuesday, July 13, 2010
"घर" में एक "माँ" बहुत ज़रूरी है.....

बहुत खुशनसीब होतें हैं वह लोग, जो "घर" में रहते हैं।
"घर" बनता है "परिवार" से, और अपनों के "प्यार" से ।
"घर" बनता है "परिवार" से, और अपनों के "प्यार" से ।
ना जाने कैसे जीतें है वह लोग, जो "मकान" में रहते हैं।
करते हैं दीवारों से बातें और उम्र भर तन्हा ही जीते हैं।
अकेले रह कर जीना, बस कुछ ही लम्हों का उन्माद है ।
उम्र भर फिर घुट-घुट कर जीना उनकी मजबूरी है।
दादा-दादी का हो आशीवाद जहाँ, माता-पिता का हो दुलार जहाँ।
बच्चों की किलकारियां गूंजें जिस आँगन में,
"तुलसी के पौधे " को पूजते हैं जिस घर में,
खुशियों के फूल महकते है हर पल जहाँ ,
बस वही "घर" कहलाता है।
समय के साथ , सब जिम्मेदारियां भी ज़रूरी हैं।
नारी जब तक ना बने "माँ" , तब तक वह अधूरी है।
चंदा-मामा की बातें , बच्चों को बताना ज़रूरी है।
दूर देश से आई "परियों" की कहानियां ज़रूरी हैं।
सकून से सो जातें हैं बच्चे रात भर,
"माँ" का लोरी सुनाना भी ज़रूरी है।
संवर जाती है ज़िन्दगी बच्चों की,
"घर" में एक "माँ" बहुत ज़रूरी है।
गुज़र जाती है ज़िन्दगी बड़े ही सुख और चैन से...
दिल में बस "अपनेपन" का "अहसास" ज़रूरी है।
और क्या चाहिए जीने के लिए "राज" को....
बस "थोड़ी सी मोहब्बत" , "ज़रा सा प्यार" ज़रूरी है।
बड़ों का आशीर्वाद और अपनों का साथ ज़रूरी है।
Wednesday, July 7, 2010
"ना जाने क्यों लोग बदल जातें हैं।"
ना जाने क्यों लोग बदल जातें हैं।
महकते हुए रिश्ते, चुभने लग जाते हैं।
कांच की तरह नाजुक होते है रिश्ते,
बरसों के रिश्ते, एक पल में टूट जाते हैं।
ना जाने क्यों लोग बदल जातें है।
मुस्कराते हुए लब, खामोश हो जाते हैं।
अश्क आखों से थम नहीं पाते हैं।
फिर भी हम उन्हें भूल नहीं पातें हैं।
ना जाने क्यों लोग बदल जातें हैं।
महकते हुए रिश्ते, चुभने लग जाते हैं।
कांच की तरह नाजुक होते है रिश्ते,
बरसों के रिश्ते, एक पल में टूट जाते हैं।
ना जाने क्यों लोग बदल जातें है।
मुस्कराते हुए लब, खामोश हो जाते हैं।
अश्क आखों से थम नहीं पाते हैं।
फिर भी हम उन्हें भूल नहीं पातें हैं।
ना जाने क्यों लोग बदल जातें हैं।
Saturday, July 3, 2010
"अब के भी बरसीं हैं बारिशें फिर पहले की तरह ......"

अब के भी बरसीं हैं बारिशें फिर पहले की तरह ......
तन तो भीगा खूब मगर, मन रहा प्यासा मेरा पहले की तरह।
पेड़ों पर लगे सावन के झूलों को खाली ही झुलाते रहे,
उन बारिशों से इन बारिशों तक इंतज़ार हम करते रहे।
वो ना आए इस बार भी मगर पहले की तरह ।
अब के भी बरसीं हैं बारिशें फिर पहले की तरह ......
वो साथ नहीं हैं यूँ तो , कोई गम नहीं है मुझको ।
मुस्कराहटें "राज" की नहीं हैं अब मगर पहले की तरह।
यूँ तो कई फूल चमन में, खिल रहे हैं आज भी मगर ।
खुशबू किसी में नहीं है, जो दिल में बस जाए पहले की तरह।
अब के भी बरसीं हैं बारिशें फिर पहले की तरह ......
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