Monday, November 14, 2011

"सच, बचपन के दिनों का क्या कहना ..."




माँ की गोद और पापा के कंधो पर झूलना ।
दादी से परियों की कहानियाँ सुनना ।
खिलोनों को हाथों में थामे ही मीठे सपनों में खो जाना ।
सच, बचपन के दिनों का क्या कहना ।
पेंसिल से दीवारों पर चाँद-तारे बनाना ।
स्कूल ना जाने के कई बहाने बनाना ।
कभी कॉपी और कभी किताबों का खो जाना ।
माँ का डांटना भी तब, लोरी सा लगना ।
सच, बचपन के दिनों का क्या कहना ।
रसोई में जाकर चुप-चुप कर मिठाई खाना ।
और उस दिन जब चूहे महाराज का,
मेरे पैरों पर से गुज़र जाना ।
घबराहट में सब लड्डुओं का फर्श पर बिखर जाना ।
माँ का डांटना भी तब, लोरी सा लगना ।
सच, बचपन के दिनों का क्या कहना ।
जब भी याद आते हैं बचपन के दिन,
बहुत याद आता है मुझे बार-बार,
मेरा अधूरा होम-वर्क और टूटा खिलौना ।

3 comments:

  1. "सच, बचपन के दिनों का क्या कहना ..."बहुत ही भावपूर्ण रचना.....

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