Monday, February 15, 2010

"विस्फोट होते रहे, बेगुनाह मरते रहे ..."

हर बार की तरह,
विस्फोट होते रहे, बेगुनाह मरते रहे।
सांप डस कर चला गया, वह लकीर पीटते रहे।
हर बार की तरह,
विस्फोटों के बाद , वह तलाशी लेते रहे।
हादसे में मारे गये लोगों की लाशें दिखाकर ,
हर बार की तरह,
ये खबरी चैनल , T.R.P. की रोटियाँ सेंकते रहे।
विस्फोट होते रहे, बेगुनाह मरते रहे।
हर बार की तरह,
नेता बस भाषण देते रहे ।
गलतियाँ एक-दूसरे पर थोपते रहे।
विस्फोट होते रहे, बेगुनाह मरते रहे।
मरने वाले को बस दो लाख मिले,
खूनी की सुरक्षा में कई करोड़ खर्च होते रहे।
हर बार की तरह,
लोग दहशत में जीते रहे।
अपने ही आंसू पीते रहे।
ज़िन्दगी को मर-मर के जीते रहे।
अगले दिन बहुत से लोग ,
अखबार में छपी विस्फोटों की ,
रक्त-रंजित तस्वीरें देखते रहे।
और साथ में चाय की चुस्कियां लेते रहे।
हर बार की तरह,
विस्फोट होते रहे, बेगुनाह मरते रहे।
सांप डस कर चला गया, वह लकीर पीटते रहे।

5 comments:

  1. yatharth ukel hee diya aapne........
    kitnee vedana chipee hai ek aam aadmee kee iseke peeche pata chalta hai........bahut sateek.........
    maine bhee isee masale par apane tareeke se sawal uthae hai...........

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  2. शलभ जी ...
    हक़ीकत बयान करी है आपने .... आज के दौर में इंसानियत के नाम पर हम अपनी कमज़ोरी को छुपाते हैं ... पर कब तक ....

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  3. सही कहा है कि बस लकीर ही पीटते रह जाते हैं....अच्छी रचना..

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  4. शलभ जी,
    आपकी कविताओं का दीवाना मैं हरदम रहा हूँ
    आपकी संवेदना की क़द्र की है हमेशा
    लिखने का हौसला नहीं हुआ कभी
    लेकिन सराहा है संवेदनाओं को हमेशा.
    इन्हें संभाल कर रखिये
    ये कमजोरी इंसान की ताक़त है
    बारूद बन जाये तो क्रांति ला सकती है..

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  5. Aap sabhi ke shabdon ne meri lekhni ko ek nayi shakti pradaan ki hai... aap ka hradey se dhanyawaad.....

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