Monday, January 13, 2014

"चलो, आज फिर मैं पतंग उडाऊं...."

चलो, आज फिर मैं पतंग उडाऊं ।
कुछ देर के लिये बचपन में लौट जाऊं ।
ज़िन्दगी के घटते हुए पलों को भूलकर,
गुज़रे हुए पलों को जोड़ लाऊं।
यूँ तो बहुत चंचल थी बचपन की हवायें
फिर भी बड़ा अदब करती थी हवायें।
नज़रों से ही बात समझ लेती थीं ,
तेज़ हवाओं में भी पतंगें डोर से बंधी रहतीं थीं।
अब ना वो पतंगें हैं ना वो हवायें हैं।
बहुत बे-अदब आज की हवायें हैं।
समझ कर भी बात नहीं समझतीं हैं।
एक हवा के झोके से ही पतंगें,
डोर से टूट जाया करती हैं ।
अनेकों रंगों में आज उड़ रही पतंगें।
बहुत बे-रंग हो रही आज पतंगें।
कहाँ से कहाँ आ गयीं सिरफिरी हवाओं संग ये पतंगें।
अपनी धरती अपना आकाश मांग रही पतंगें,
आज "केसरिया" और "हरी" हो रही पतंगें।
कैसे , आज फिर में दिल को अपने समझाऊं ?
इन हवाओं में, कैसे मैं पतंग उडाऊं ।

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