अजनबी शहर था,
कब हो गया अपना पता ही ना चला।
एक फूल गुलाब का चाहा था,
कब बागवाँ हो गया अपना पता ही ना चला।
कल रात घनघोर थी बारिश,
कहीं कुछ दिखता ना था।
किस ओर जाऊं मैं सोच ही रहा था।
कब थाम लिया उसने,
मेरा हाथ आकर पता ही ना चला।
कुछ वर्षों से मेरी कविताओं को शब्द मिलते ना थे,
एक-दो पंक्तियों से आगे हम लिखते ना थे।
कब बन गई एक नई कहानी पता ही ना चला ।
( शलभ गुप्ता "राज")
कब हो गया अपना पता ही ना चला।
एक फूल गुलाब का चाहा था,
कब बागवाँ हो गया अपना पता ही ना चला।
कल रात घनघोर थी बारिश,
कहीं कुछ दिखता ना था।
किस ओर जाऊं मैं सोच ही रहा था।
कब थाम लिया उसने,
मेरा हाथ आकर पता ही ना चला।
कुछ वर्षों से मेरी कविताओं को शब्द मिलते ना थे,
एक-दो पंक्तियों से आगे हम लिखते ना थे।
कब बन गई एक नई कहानी पता ही ना चला ।
( शलभ गुप्ता "राज")
Thanx Sushma ji ...
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