Wednesday, April 12, 2017

"दास्ताँ.."
















समुन्दर किनारे बैठकर , लहरों से बातें की बहुत ।
सांझ ढले अपने घर जाता सूरज, लौटते पंछी याद आये बहुत ।
बातें थी कुछ ख़ास दिल में ही रहीं, कहनी थी जो उनसे बहुत ।
खुद से करते रहे हम बातें, कभी रोये कभी मुस्कराये बहुत ।
कालेज के दिन, कैंटीन और "दोस्त" याद आये बहुत ।
दिल के बागवां से, यादों के फूल समेट लाये बहुत ।
आज भी आती है , उन फूलों से खुशबू बहुत ।
तितलियाँ, फूल और यादें , मेरे जीने के लिए हैं बहुत ।
और क्या कहें अब जाने दो , दास्ताँ यह लम्बी है बहुत ।

(शलभ गुप्ता "राज")

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