Sunday, January 23, 2011

"पेड़ से टूटे हुये सूखे पत्ते..."



मेरे बराबर वाली बिल्डिंग में ;
लगे हुए बादाम के पेड़ के
बहुत सारे सूखे पत्ते
मेरे कमरे के दरवाजे के सामने ,
आजकल रोज ही आ जाते हैं ।
आवाज़ देकर मुझे बुलाते हैं ।
फिर घंटों मुझसे बतियातें हैं ।
मेरे दिल की सुनते हैं ,
कुछ अपनी कहानी सुनाते हैं ।
पेड़ से टूटे यह "सूखे पत्ते" ,
इस अजनबी शहर में,
अपनेपन का अहसास दिला जाते हैं ।
मेर सच्चे दोस्त जो बन जाते हैं।
ना जाने कौन से रिश्तों में मुझे बाँध लिया है ।
पैरों के नीचे न आ जाये कहीं ;
अपने हाथों से समेट कर ,
एक सुरक्षित जगह रख देता हूँ।
मगर, समुन्दर से आनी वाली हवायें बहुत बेदर्द हैं ।
ना ही इनके मन में किसी के लिये दर्द है ।
समेटे हुए सारे पत्तों को ,
एक-एक करके बिखरा देती है ।
ना जाने कहाँ - कहाँ उड़ा देती है ।
समेट नहीं पाता फिर मैं उन पत्तों को ,
भीगे नैनों से उन्हें दूर जाते हुये ,
बस देखता रह जाता हूँ ।
हर बार की तरह ,
एक बार फिर से "तन्हा" हो जाता हूँ ।

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