
कल शाम बातों-बातों में ,
आखों से कहने लगे मेरे आंसू ;
और सब्र होता नहीं,
अब "बरस" जाने को जी चाहता है ।
परदेस में हो गये अब बहुत दिन,
अब घर जाने को जी चाहता है ।
पार्क में खेलते बच्चे,
घर की याद दिला जाते हैं ।
बच्चों के संग खेलने को जी चाहता है ।
पार्क के सामने गुब्बारे के लिये,
किसी बच्चे को रोता देखकर ,
सारे गुब्बारे उसके लिये खरीदकर,
उसको हंसाने को जी चाहता है ।
परदेस में हो गये अब बहुत दिन,
अब घर जाने को जी चाहता है ।
पार्क में खेलते हुये बच्चे जब गिर जाते हैं ।
दौड़कर उन्हें उठाने को जी चाहता है ।
खेल-खेल में जब समुन्दर किनारे पहुँच जाते हैं बच्चे,
उन्हें आवाज़ देकर रोकने को जी चाहता है ।
परदेस में हो गये अब बहुत दिन,
अब घर जाने को जी चाहता है ।
कुछ देर बच्चों के संग खेलने को जी चाहता है ।
(आभार : फोटो गूगल )
परदेश तो परदेश ही होता है अपने घर की नमक रोटी भी अच्छी लगती है।
ReplyDeleteAmit ji (Ehsaas) : सही कहा आपने..., फिर भी कभी-कभी घर से निकलना ही पड़ता है...
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