Wednesday, May 11, 2011

"विशाल गगन में उड़ रहा एक पंछी अकेला....."

विशाल गगन में उड़ रहा एक पंछी अकेला ।
शाम होने को आई मगर,
कहाँ करे विश्राम , कोई नहीं उसका बसेरा।
वक्त ने काट दिए "पर" उसके,
होंसलों के परों से उड़ रहा , अब भी वह पंछी अकेला ।
उसके विशाल गगन में , ना सूरज है ना अब चंदा कोई ।
हर तरफ़ है बस अँधेरा ।
कहाँ करे विश्राम , कोई नहीं उसका बसेरा।
उड़ते- उड़ते ना जाने कैसे ,
यह कौन से शहर में आ गया वह ।
यूँ तो लाखों मकान है इस शहर में ,
और आसमान छूती इमारतें भी ।
जिस छत की मुंडेर पर सुकून से वह बैठ सके ,
घर उसके लिए एक भी ऐसा नहीं।
लहुलुहान है जिस्म उसका उड़ते-उड़ते,
लगता नहीं अब शायद ,
इस शहर में वह विश्राम कर पायेगा।
और साँसें इतनी भी बाकी नहीं,
कि वह वापस चला जायेगा।
उड़ते-उड़ते ही वह शायद , अब तो फ़ना हो जायेगा।
फिर यह शहर किसी नए पंछी की तलाश में,
फिर से आसमान में देखने लग जायेगा।

4 comments:

  1. फिर यह शहर किसी नए पंछी की तलाश में,
    फिर से आसमान में देखने लग जायेगा।
    अंतिम पंक्तियाँ दिल को छू गयीं ,बहुत सुन्दर रचना, बधाई .....

    ReplyDelete
  2. @ Sunil Kumar Ji : Zindagi Ke Halat Shabdon Me Bayan Kar Baithe.... Aapko Meri Panktiyan Pasand Aayi ..Aapa Dil Se Shukriya...

    ReplyDelete
  3. gahan anubhootee kee lajawab abhivykti .

    ReplyDelete
  4. @ Apanatva Ji : Jo Ab Tak Mehsoos Kiya Hai, Bas Vahi Likha Hai Maine.... Aapke Shabd Mujhe Hamesha Ek Nayi Urza Pradaan Karte Hai....

    ReplyDelete