Saturday, December 5, 2009

"स्रष्टि का नियम यही है........"



एक पत्ता पेड़ से टूट कर,
धरती की ओर आ रहा।
हवा के रुख को भांप रहा।
प्रश्न उठ रहे उसके मन में,
यह हवा कहाँ ले जायेगी मुझको,
या फिर पेड़ के ही पास गिरूंगा।
अकेलापन कैसे सह पाऊंगा ?
मैं तो अपने पेड़ के ही संग रहूँगा।
बंधनों से मुक्त होकर भी ना जाने ,
किन बंधनों में बंधा है ?
टूटा पत्ता , ना समझ है ।
व्यर्थ ही शोक में डूबा है।
अरे पगले !
स्रष्टि का नियम यही हैं ।
जीवन की रीत यही है।
बिछुड़ने का तू दुःख ना कर ।
इसी माटी में जन्मा है तू ,
और इसी में मिल जाना है।
मिलने - बिछुड़ने का यह क्रम,
अनवरत चलते जाना है।
फूलों का संग तुझको ,
एक दिन, फिर से पाना है।
"नया पत्ता" बनकर तुझको,
फिर से, इसी पेड़ पर आना है।

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