बहारों के मौसम में भी फूल खिल ना सके ।
वह ऐसे बिछुड़े हमसे , फिर मिल ना सके।
हजारों ख्वाब थे, मगर कुछ ऐसे टूटे ,
ख्वाब आंखों में कभी , फिर आ ना सके ।
ख्वाहिशें डूब गयीं , आंसुओं के समुंदर में कहीं।
किनारे पर उनको कभी , फिर ला ना सके ।
वह ऐसे बिछुड़े हमसे , फिर मिल ना सके।
लिफाफों पर लिख कर नाम मेरा,
कोरा कागज़ वह भेजते रहे ।
आंसुओं से भीगे ख़त को , दिल से हम समझते रहे ।
सारे खतों के थे जवाब , मगर भेज ना सके ।
वह ऐसे बिछुड़े हमसे , फिर मिल ना सके।
यूं तो चमन में खिल रहे हैं , आज भी कई फूल मगर ,
खुशबू किसी में नहीं वैसी, जो सांसों में बस सके।
वह ऐसे बिछुड़े हमसे , फिर मिल ना सके।
@ शलभ गुप्ता "राज"
(कई वर्ष पूर्व लिखी हुई एक कविता)
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