Thursday, December 10, 2009

"दिल पर हर बार, एक जख्म नया देखा..."



दोस्ती का नया रिवाज़ देखा ।
दुश्मनों के हाथ में गुलाब देखा।
भरी महफ़िल में उसने हाथ मिलाया मगर,
दिल में उसके बहुत फासला देखा।
ख़ुद ही झुक गयीं नज़रें उसकी ,
आईने में जब उसने अपना चेहरा देखा।
अब ना करेगें भरोसा किसी पर,
कई बार ख़ुद को , ख़ुद से यह कहते देखा।
घाव भरते भी , तो भरते किस तरह ...
दिल पर हर बार, एक जख्म नया देखा।

2 comments:

  1. बहुत बढिया रचना है "राज" जी। बधाई।

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  2. आपका ह्रदय से आभार प्रिय परमजीत जी.......

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