Wednesday, July 21, 2021

"मेरे घर के दरवाज़े पर.."

मसरूफ कर लिया अब खुद तो मैंने, 
विरासत में मिली घर की ज़िम्मेदारियों में।  
घर के सारे कोने भी, बहुत अपनापन रखते हैं। 
खुले रोशनदान, मुझसे अपनी कहानी कहते हैं। 
मेरे कमरे की दीवारें तो, मुझसे बहुत बतियाती हैं। 
थक जाता हूँ जब, मेरा सिरहाना बन जाती हैं। 
घर का मुख्य दरवाज़ा भी मेरी राह देखता है। 
जब तक घर न आऊं, बाहर देखता रहता है। 
आज भी मेरी तलाश में, उसके शहर की हवाएं,
मेरे घर के दरवाज़े पर, दस्तक देने आ जाती हैं। 
अब यहाँ कोई नहीं रहता, जब कहता हूँ मैं। 
पहचान लेती हैं आवाज़ मेरी, मगर लौट जाती हैं। 
(शेष फिर..)

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