दोपहर तक किनारे की सारी रेत भीगी हुई थी।
वो पढने लगे है अब मेरी कहानियाँ,
दिल के कागज़ पर अब तक जो लिखी हुई थी ।
सुलझने लगी है ज़िन्दगी की पहेलियाँ ,
बरसों से अब तक जो उलझी हुई थी ।
डायरी के पन्नों को लगे हैं हम पलटने,
एक जमाने से अलमारी में जो रखी हुई थी ।
No comments:
Post a Comment