Wednesday, April 8, 2009

ढूंढ़ता हूँ बहुत, मगर मिलता ही नहीं .......



ढूंढ़ता हूँ बहुत, मगर मिलता ही नहीं .......
चाँद मेरे आसमान का खो गया कहीं ।
पथरा गई हैं निगाहें कर-कर के इंतज़ार,
मेरी छत की मुंडेर पर अब कोई काग भी बोलता नहीं।
ढूंढ़ता हूँ बहुत, मगर मिलता ही नहीं .......
वो जाते हुए आपका मुड़कर देखना मुझे।
यूँ तो आपके भीगे नैनो ने कह दिया था बहुत।
फिर भी कुछ बातें थी ख़ास, जो दिल में ही रहीं।
ढूंढ़ता हूँ बहुत, मगर मिलता ही नहीं .......
लड़खड़ाते हुए कदम थे आपके,
थम गई थी धड़कने "राज" के दिल की।
जुदा हो रहे थे जब हम तुम,
मेरे लिए तो वो पल, शताब्दी बनकर ठहर गया वहीं।
ढूंढ़ता हूँ बहुत, मगर मिलता ही नहीं .......

2 comments:

  1. shalbh ji,
    bahut pyari nazm. lafzon ko bade kareene se sajaya hai.
    badhayi ho.

    shahid "ajnabi"

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  2. वाह जी बेहतरीन रचना के लिए आपको बहुत बहुत बधाई

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