किसी की लिखी हुई यह दो पंक्तियाँ, मुझे अक्सर याद आती हैं और हमेशा निरंतर चलने के लिए मेरा हौसला बढाती रहतीं हैं।
"जब से चला हूँ , मंजिल पर नज़र है।
मैंने कभी मील का पत्थर नहीं देखा।"
चलते-चलते बशीर बद्र जी का एक शेर याद आ गया है , वह भी आपको सुनाता चलूँ....
"तुम्हारे शहर के सारे दिये तो सो गये लेकिन,
हवा से पूछना दहलीज़ पर ये कौन जलता है। "
हवा से पूछना दहलीज़ पर ये कौन जलता है। "
आपका ही,
शलभ गुप्ता
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