शायद सब ठीक कहते हैं, जो जैसा है वैसा ही रहेगा । बस जुड़ते रहिये और मिलते रहिये। लेकिन लोग ऐसे क्यों होते हैं ? यह बात एक शहर की नहीं है हर जगह ऐसा ही हो रहा है।
आज लोग इंसानों को एक वस्तु की तरह use करते हैं। फिर उसका misuse करते हैं। अरे भाई , हम भी एक इंसान है। कहते हैं कि दिल और दिमाग की दौड़ में, जीत दिमाग की होती है। नही चाहिए मुझे यह जीत।
किसी के आंसुओं में डूबी हुई खुशी मुझे नहीं चाहिए।
आज सब सिकंदर बनना कहते हैं, पुरु बनना क्यों नहीं ? शायद मेरे पास भगवान् ने सिकंदर जैसा दिमाग नहीं दिया। हम सब क्या हासिल करना चाहते हैं ?
आज हम सब चाँद तक पहुँच गए है , पर क्या किसी के दिल तक पहुँच पाये हैं ? शायद नहीं।
नहीं चाहिए मुझे ऐसा दिमाग जो हमें लोगों के दिलों से दूर कर दे। मेरा तो यह मानना है कि किसी को यदि मेरे आसुओं में खुशी मिलती है तो वो ही सही , आख़िर हम किसी को खुशी तो दे रहे हैं।
अपनी एक कविता की चार पंक्तियों के माध्यम से अपनी बात आपके सामने रखना चाहता हूँ।
"हर किसी को अपना समझ लेते है,
इस तरह फिर दिल को सज़ा देते हैं ,
गलती यह हम बार-बार करते हैं ,
आँखें रोंती हैं , फिर उम्र भर
लब मगर हमेशा मेरे मुस्कराते हैं। "
और यह सोचना अगर ग़लत है तो यह गलती हम बार - बार करना चाहेंगें ।
आपका ही ,
शलभ गुप्ता
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