Monday, March 2, 2009

जिस्म छोड़ रहा हूँ , थोडी जान अभी बाकी है .....


जिस्म छोड़ रहा हूँ , थोडी जान अभी बाकी है ।

वोह शायद मना लेंगें मुझको , थोडी आस अभी बाकी है ।

सुबह का सूरज कब निकलेगा ,

बीत रही है रात , मगर थोडी अभी बाकी है ।

रात भर शायद , बहुत रोई है रात

दोपहर तक फूलों पर , ओस अभी बाकी है ।

जिस्म छोड़ रहा हूँ , थोडी जान अभी बाकी है ।

वोह शायद मना लेंगें मुझको , थोडी आस अभी बाकी है ।

अपने हैं तो , मार कर भी छाँव में ही डालेंगे ।

मेरे दोस्तों में , इतनी इंसानियत अभी बाकी है ।

अपनों का ज़हर है , ज़रा देर से असर करेगा

जान जायेगी बहुत , देर तड़पने के बाद

मेरे ग्लास में , कई घूँट ज़हर अभी बाकी है ।

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