I am Shalabh Gupta from India. Poem writing is my passion. I think, these poems are few pages of my autobiography. My poems are my best friends.
Tuesday, November 15, 2011
"बचपन के दिन..."
बड़े होकर मासूम मुस्कराहटें हो जाती है बहुत दूर ।
काश कभी ऐसा हो जाये, सब कुछ देकर मुझे,
बचपन का एक दिन ही वापस मिल जाये ।
Monday, November 14, 2011
"सच, बचपन के दिनों का क्या कहना ..."

दादी से परियों की कहानियाँ सुनना ।
खिलोनों को हाथों में थामे ही मीठे सपनों में खो जाना ।
सच, बचपन के दिनों का क्या कहना ।
पेंसिल से दीवारों पर चाँद-तारे बनाना ।
स्कूल ना जाने के कई बहाने बनाना ।
कभी कॉपी और कभी किताबों का खो जाना ।
माँ का डांटना भी तब, लोरी सा लगना ।
सच, बचपन के दिनों का क्या कहना ।
रसोई में जाकर चुप-चुप कर मिठाई खाना ।
और उस दिन जब चूहे महाराज का,
मेरे पैरों पर से गुज़र जाना ।
घबराहट में सब लड्डुओं का फर्श पर बिखर जाना ।
माँ का डांटना भी तब, लोरी सा लगना ।
सच, बचपन के दिनों का क्या कहना ।
जब भी याद आते हैं बचपन के दिन,
बहुत याद आता है मुझे बार-बार,
मेरा अधूरा होम-वर्क और टूटा खिलौना ।
Wednesday, October 26, 2011
"दीपावली" की हार्दिक शुभकामनाएँ ..."
Thursday, October 20, 2011
"ऐ - वक्त , तू बार-बार मेरा इम्तहान क्यों लेता है ?"

ऐ - वक्त , तू बार-बार मेरा इम्तहान क्यों लेता है ?
दो कदम आगे चलता हूँ, चार कदम पीछे कर देता है।
जब भी कश्ती उतारता हूँ, समुन्दर में तूफान खड़ा कर देता है।
ऐ - वक्त , तू बार-बार मेरा इम्तहान क्यों लेता है ?
एक-एक करके बड़ी लगन से , खुशियों के बीज बोता हूँ।
खिल भी ना पाते हैं फूल, कि हर मौसम को पतझड़ कर देता है।
ऐ - वक्त , तू बार-बार मेरा इम्तहान क्यों लेता है ?
मुस्कराते हुए लम्हे ना जाने कहाँ खो गये,
एक-एक करके सब मुझसे जुदा हो गये।
भीड़ भरी सड़कों पर भी तन्हा कर देता है।
ऐ - वक्त , तू बार-बार मेरा इम्तहान क्यों लेता है ?
लिखना चाहता हूँ बहुत कुछ , कहना चाहता हूँ बहुत कुछ..
लिखने बैठता हूँ जब भी मगर, मुझे नि: शब्द कर देता है।
ऐ - वक्त मेरे, तू बार-बार मेरा इम्तहान क्यों लेता है ?
Wednesday, September 28, 2011
"लहरें..."
Wednesday, September 21, 2011
"एक पेड़......"
"परिंदे...."
Saturday, September 17, 2011
"बचपन के दिन याद आते हैं.."
Thursday, September 15, 2011
"मन की तितलियों को उड़ने दिया करो ..."

कभी-कभी अपने दिल की भी सुना करो ।
मन की तितलियों को उड़ने दिया करो ।
ये माना , काम में बहुत मसरूफ हो मगर,
कभी-कभी कुछ लम्हे खुद को भी दिया करो ।
कभी-कभी बारिशों के मौसम में भी भीगा करो।
उदास ज़िन्दगी में , इन्द्रधनुषी रंग भरा करो ।
कभी-कभी दिल कहे अगर, तो खुल कर भी हँसा करो ।
तितलियों को किताबों में मत रखा करो।
उनके संग-संग आसमां में उड़ा करो।
कभी-कभी अपने दिल की भी सुना करो।
Tuesday, September 13, 2011
"खामोशियाँ बोलने लगी हैं..."
"राज" सारे खोलने लगी हैं।
कान्हा के होठों का,
बांसुरी को सहारा क्या मिला,
गोपियाँ प्रेम-गीत गाने लगी हैं।
Monday, September 12, 2011
"एक नयी कहानी लिखेंगें ज़रूर .."
फूल खिलेंगे ज़रूर।
यकीन है पूरा मुझको,
ब्लॉग के सब साथी ,
एक दिन मिलेंगें ज़रूर।
अपनेपन का अहसास लिये,
फूलों की नाज़ुक कलियाँ,
सब मिल कर,
एक नयी कहानी लिखेंगें ज़रूर ।
खिल जाएँ फूल,
तो आप सब , बस इतना करना।
उन फूलों को संभाल कर,
अपने दिल की किताब में रखना।
यकीन है पूरा मुझको,
ता-उम्र उस किताब से,
खुशबू आयेगी ज़रूर।
Friday, September 9, 2011
"घर का आँगन और बच्चों का बोलना..."
बहुत मुश्किल है आंसुओ को रोकना ।
ना जाने फिर कब होगा मिलना ।
बार-बार फिर याद आता है मुझको,
घर का आँगन और बच्चों का बोलना ।
Monday, August 29, 2011
"चाहे, हौले-हौले चल ..."
एक ही रास्ते पर चल ।
चाहे, हौले-हौले चल ।
उबड़-खाबड़ देख कर,
रास्ता ना बदल ।
चाहे, हौले-हौले चल ।
गिरकर, संभलता चल ।
ठोकरों से सीखता चल ।
चाहे, हौले-हौले चल ।
रंग-बिरंगी कारें देख कर,
मन ना मचल ।
समय तेरा भी आयेगा ,
जरा सब्र तो कर ।
मिल ही जायेगी मंजिल,
आज , नहीं तो कल !
अपने क़दमों पर कर भरोसा ,
एक ही रास्ते पर चल ।
चाहे, हौले-हौले चल ।
Wednesday, August 24, 2011
"फिर एक बार क्या तुम आओगी ?"

अपनी किताब में संभाल-संभाल कर,
सबसे छुपा कर रखती थी हर रोज़ एक फूल को ,
जैसे हजारों फूल हों , उस नन्हें से पौधे में
जितने भी तोड़तीं थी तुम,
उससे भी ज़्यादा खिल आते थे अगले दिन
आज वही गुलाबी फूलों का नन्हा सा पौधा,
मेरे घर के आँगन में फिर एक बार ,
कई बरसों बाद ना जाने ,
कैसे अपने आप खिलने लगा है।
कलियाँ भी आने लगीं हैं पौधे में,
बन के फूल , अब मुस्करायेंगी कुछ दिनों में।
"राज" बस यही सोचते हैं हर पल,
उन गुलाबी फूलों को चुराने, मेरे घर के आँगन में,
पहले जैसी दौड़ती हुई ना सही , दबे पाँव ही सही,
हकीकत में ना सही, ख्वाबों में ही सही,
अपने आँचल में उन फूलों को समेटने ,
एक बार फिर क्या तुम आओगी ?
पंखुडियों को किताबों में सजाने
फिर एक बार क्या तुम आओगी?
Thursday, August 18, 2011
"जब भी कभी तन्हा , महसूस करता हूँ मैं ..."

अपनी कविताओं से , बातें करता हूँ मैं ।
बातों में, फिर तेरा ज़िक्र करता हूँ मैं ।
ज़िक्र तेरा आते ही मेरी कविताओ के,
खामोश शब्द बोलने लगते हैं ,
फिर घंटों मुझसे , तेरी बातें करते हैं ।
मेरी कविताओं के शब्द तुमने ही तो रचे है
तुम्हारी ही तरह “शब्द” बहुत भावुक है ।
बातें मुझसे करते है , और नैनों से बरसते रहते है ।
जब भी कभी तन्हा , महसूस करता हूँ मैं ।
अपनी कविताओं से बातें करता हूँ मैं ।
अर्ध -विराम सहारा देतें है शब्दों को ,
मात्राएँ शब्दों के सर पर हाथ रखती हैं ।
हिचकियाँ लेते शब्दों को पंक्तियाँ दिलासा देतीं है ।
फिर सिसकियाँ लेते हुए शब्दों को ,
मैं सीने से लगाकर , बाहों में भर लेता हूँ,
शब्द मुझमे समां जाते है , मुझको रुला जाते है । "
Tuesday, August 16, 2011
"अजनबी शहर था, कब हो गया अपना पता ही ना चला..."

एक फूल गुलाब का चाहा था,
कब बागवाँ हो गया अपना पता ही ना चला।
कल रात घना था अँधेरा, कहीं कुछ दिखता ना था।
किस ओर जाऊं मैं , यह सोच ही रहा था।
कब थाम लिया उसने मेरा हाथ आकर, पता ही ना चला।
लंबा था सफर, जाना था बहुत दूर ,
"राज" को सफर में हमसफ़र मिला खूबसूरत बहुत।
कब आ गई मंजिल, पता ही ना चला।
कुछ वर्षों से मेरी कविताओं को शब्द मिलते ना थे,
एक-दो पंक्तियों से आगे हम लिखते ना थे।
कब बन गई एक नई कहानी, पता ही ना चला ।
Tuesday, August 9, 2011
"यदि आँखों में किसी की, कोई नमी नहीं हैं..."
Saturday, July 30, 2011
"एक नई इबारत लिख रहा..."
तेज़ी से गुज़र रहा।
आने वाले कल के लिए,
नई इबारत लिख रहा।
इस भागती - दौड़ती दुनिया में ,
हर इंसान अपना मुकाम तलाश रहा ।
"राह" का पत्थर था जो अब तलक,
अब "मील" का पत्थर बन रहा ।
Wednesday, July 27, 2011
"इस शहर के लोग मुझे...."
प्यार बहुत करते हैं।
जब भी मिलते हैं मुझसे,
खुले दिल से मिलते हैं।
क्यों ना करूँ मैं हर पल ,
अब ख्याल उन सबका,
अच्छे लोग इस दुनिया में,
बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। "
Thursday, July 21, 2011
कुछ पंक्तियाँ हैं अपनेपन का अहसास लिये....
मेरे शब्दों को नये अलंकार मिले हैं ।
और जब से मिले हैं आप सब मुझे ,
जीने के मुझे नये आयाम मिले हैं।
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"किसी की पथरायी आँखों के लिए ,
ख़ुशी का "एक आंसू" बन जाऊँ मैं ।
चाहे अगले ही पल बह जाऊँ मैं ।
एक पल में कई ज़िन्दगी जी जाऊँ मैं ,
चाहे अगले ही पल फ़ना हो जाऊँ मैं ।
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बरसात के मौसम में भीगना मुझे यूँ अच्छा लगता है ।
हम कितना भी रो लें, किसी को क्या पता चलता है ।
Monday, July 11, 2011
"गुब्बारेवाला हमारी गली में अब आता नहीं..."

बातों से अब मन मानता नहीं।
पापा,आपको है कसम हमारी ,
हमसे मिलने अब आना यहीं।
गुब्बारेवाला हमारी गली में अब आता नहीं।
बर्फ की चुस्कीवाला भी दूर तक नज़र आता नहीं,
सबको मालूम है, पापा हमारे यहाँ रहते नहीं।
पापा आपको है कसम हमारी ,
हमसे मिलने अब आना यहीं।
दादी जी को दवाएं और चाहियें नहीं,
आपको देखकर ठीक हो जायेंगी वहीँ।
दादा जी चश्मे का नम्बर बदलवाते नहीं,
कहते हैं, अब उसकी जरुरत नहीं।
बाईक पर बैठा कर दूर ले जाना कहीं,
रास्ते में हम कुछ और मांगेंगे नहीं।
पापा, आपको है कसम हमारी ,
हमसे मिलने अब आना यहीं।
छोटे भाई की पुरानी साईकल भी कोई ठीक करता नहीं,
मैं हूँ तो बड़ा पर इतना नहीं ,
छोटे को बैठा कर अभी मुझसे चला जाता नहीं।
पापा , आपको है कसम हमारी ,
हमसे मिलने अब आना यहीं।
मम्मी की मुस्कराहटें तो खो गयी कहीं।
"गाजर के हलुए" में मिठास अब होती नहीं।
पापा, आपको है कसम हमारी ,
हमसे मिलने अब आना यहीं।
Sunday, July 3, 2011
"पापा, जल्दी घर आ जाना ..."
Thursday, June 30, 2011
"तुलसी" का पौधा बनना ही होगा...

मेरा अनुग्रह तुम्हें स्वीकार करना ही होगा।
अब तुम्हें खिलना ही होगा।
मेरे घर के आंगन में,
"तुलसी" का पौधा बनना ही होगा।
ना जाने कैसे अपने आप,
बिन बुलाये मेहमान की तरह,
काटों से भरे ये जिद्दी पौधे,
उग आते हैं मेरे घर में,
लहुलुहान कर देते हैं हाथ मेरे,
रोज़ ही हटाता हूँ उन पौधों को,
मगर अगले दिन,
और भी ज़्यादा उग आतें हैं ।
और अब तो,
मेरे मन को भी चुभने लगे हैं।
हर जगह दिखाई देने लगे हैं।
जीवन कष्टों में ही बीत गया,
वक्त, सचमुच मुझसे जीत गया।
कुछ पल खुशियों के अब देने ही होंगें।
उम्र भर "तपती रही" ज़िन्दगी को,
अब "तपोवन" बनना ही होगा।
मेरी प्रिय "मंजरी",
इसीलिए,
मेरा अनुग्रह तुम्हें स्वीकार करना ही होगा।
अब तुम्हें खिलना ही होगा।
मेरे घर के आंगन में,
"तुलसी" का पौधा बनना ही होगा।
Sunday, June 26, 2011
"जागती आखों में निंदियाँ दे जाना ..."

माँ , एक बार फिर से मुझको
लोरी सुनाकर , सुला जाना ।
जागती आखों में निंदियाँ दे जाना ।
याद है मुझको बचपन में ,
जब नींद नहीं मुझको आती थी ,
तुम्ही तो लोरी गाकर ,
मुझको रोज सुलातीं थीं।
धीरे - धीरे समय बीत गया,
वक्त की आपा-धापी में ,
लोरियां सब भूल गया।
ज़िन्दगी की भाग-दौड़ में ,
नींदें मुझसे रूठ गयीं।
माँ , एक बार फिर से मुझको
लोरी सुनाकर , सुला जाना ।
जागती आखों में निंदियाँ दे जाना ।
माना , यह वक्त लोरियों का नहीं है...
चक्रव्यहू से निकलना मगर,
मुझको आता नहीं है।
याद है मुझको बचपन में ,
बिना कहे ही सब पहचान लेतीं थी,
क्यों परेशान हूँ मैं ,
सब कुछ जान लेती थीं।
माँ , एक बार फिर से मुझको
लोरी सुनाकर , सुला जाना ।
जागती आखों में निंदियाँ दे जाना ।
नींदों में स्वप्न सलोने दे जाना।
Friday, June 24, 2011
"नींव का पत्थर बनना है मुझे..."

नींव का पत्थर बनना है मुझे।
सब अगर गुम्बद में ही लगेंगे,
नींव में फिर कौन से पत्थर लगेंगे ।
आसमान नही छूना है मुझे,
धरती में ही बस रहना है मुझे।
ख़ुद खामोश रहकर सबको
मुस्कराते हुए देखना है मुझे।
नींव का पत्थर बनना है मुझे।
देवता के चरणों में नही अर्पित होना है मुझे।
फूलों की माला नहीं बनानी है मुझे।
शूल बनकर फूलों की हिफाज़त करनी है मुझे।
नींव का पत्थर बनना है मुझे।
कहीं दूर नहीं जाना है मुझे,
कश्ती में ही रहना है मुझे।
मांझी बनकर , सबको पार ले जाना है मुझे।
नींव का पत्थर बनना है मुझे।
Friday, June 17, 2011
"पहले जैसे इन्द्रधनुष , अब बनते नहीं हैं...."

ऐसा नहीं कि , बूंदों से मुझे प्यार नहीं है।
अब की बारिशों पर , मुझे ऐतबार नहीं हैं।
आती हैं घटायें , किसी अजनबी की तरह।
पहले की तरह अब बरसती नहीं हैं।
पहले जैसे इन्द्रधनुष , अब बनते नहीं हैं।
बूंदों में अब, अपने पन का अहसास नहीं हैं।
ऐसा नहीं कि , बूंदों से मुझे प्यार नहीं है।
अब की बारिशों पर , मुझे ऐतबार नहीं हैं।
बदल गया है वक्त बदल गया ज़माना ,
खुले मन से अब "दोस्त" मिलते नहीं हैं ।
पहले जैसे इन्द्रधनुष , अब बनते नहीं हैं ।
Wednesday, June 15, 2011
"मुझे अजनबी रहने दो....."

ना चिराग जलाओ राह में,
बस अँधेरा रहने दो ।
ना देखो प्यार भरी निगाहों से ,
मुझे अजनबी रहने दो ।
तुम सदा खुश रहो मुस्कराओ ,
मेरी आखों में आंसू रहने दो ।
"एक दिन हम उनके हो जायेगें"
मुझे यह गलतफहमियाँ रहने दो ।
प्यार किया था हमसे किसी ने ,
बस यही अहसास उम्रभर,
अब मेरे साथ रहने दो ।
ना चिराग जलाओ राह में,
बस अँधेरा रहने दो ।
"एक दिन हम उनके हो जायेगें"
मुझे यह गलतफहमियाँ रहने दो ।
Sunday, June 12, 2011
"मेरी आखों पर पहरे हैं ..."
मेरी पलकों पर आकर ठहरे हैं ।
बरस नहीं सकते मगर,
मेरी आखों पर पहरे हैं ।
"राज" बहुत गहरे हैं ।
जुदा हुये थे जिस मोड़ पर,
हम आज तक वहीं ठहरे हैं ।
किस तरह याद करें तुमको,
मेरी हिचकियों पर पहरे हैं ।
"राज" बहुत गहरे हैं ।
Friday, June 10, 2011
"उसके घर का दरवाजा हमेशा बंद रहता है..."
ना जाने कैसा शख्स है वो,
जो अपने ही घर में कैद रहता है।
खिड़कियाँ भी बंद हैं और रौशनदान भी ,
ना जाने कैसा शख्स है वो,
जो दिन में भी अँधेरा किये रहता है।
उसके घर का दरवाजा हमेशा बंद रहता है।
जमाना हो गया उसको देखे हुए,
ना जाने कैसे वो ख़ुद को,
दुनिया से छुपाये रखता है।
उसके घर का दरवाजा हमेशा बंद रहता है।
शायद बहुत मजबूर है वो,
अपनों से क्यों दूर है वो ....
चलो, आज उसके घर हो आऊं मैं ।
दरवाज़े पर उसके हौले से एक दस्तक दे आऊं मैं।
अंधेरे जीवन में उसके , उजाला कर आऊं मैं।
दुःख: दर्द सब बाँट लूँ उसका....
मुस्कराहटों के कुछ गुलदस्ते , आज उसे दे आऊं मैं।
यूँ तो मैं कुछ लगता नहीं उसका मगर,
दिल में हमेशा उसका ख्याल रहता है।
ना जाने कैसा शख्स है वो,
जो अपने ही घर में कैद रहता है।
उसके घर का दरवाजा हमेशा बंद रहता है।
Tuesday, June 7, 2011
"आजकल मुझसे मेरे शब्दों की नहीं बनती .... "

बारिशों के मौसम में भी अब कविता नहीं बनती ।
कोई कह दे उनसे जाकर , मैं उनका हो नहीं सकता ।
मेरी हथेलियों में अब मिलन की लकीरें नहीं बनती।
आजकल मुझसे मेरे शब्दों की नहीं बनती ....
ख़ुद ही रचा था मैंने , अपनी तबाही का मंजर ।
आंसुओं से भरी आँखें , गवाह बनी थी मेरी ।
दिल पर पत्थर रख कर जब , तुमको रुखसत किया था मैंने।
क्यों निगाहें आज फिर , तुम्हारा इंतज़ार हैं करतीं ?
आजकल मुझसे मेरे शब्दों की नहीं बनती ....
Monday, June 6, 2011
"जन्म-दिन की हार्दिक शुभकामनायें ..."

सूर्योदय जब तक होतें रहें।
जन्म-दिन तब तक मनातीं रहो,
दुआ है मेरी सदा मुस्कराती रहो।
फूल चमन में जब तक खिलते रहें,
खुशबूं से फिजायें जब तक महकती रहें।
जन्म-दिन तब तक मनातीं रहो,
दुआ है मेरी सदा मुस्कराती रहो।
बारिशें जब तक बरसती रहें,
इन्द्रधनुष जब तक बनते रहें।
जन्म-दिन तब तक मनातीं रहो,
दुआ है मेरी सदा मुस्कराती रहो।
चंदा में जब तक चांदनी रहे,
तारों में जब तक जगमगाहट रहे।
जन्म-दिन तब तक मनातीं रहो,
दुआ है मेरी सदा मुस्कराती रहो।
Saturday, June 4, 2011
"अब के भी बरसीं हैं बारिशें फिर पहले की तरह .."
तन तो भीगा खूब मगर, मन रहा प्यासा मेरा पहले की तरह।
पेड़ों पर लगे सावन के झूलों को खाली ही झुलाते रहे,
उन बारिशों से इन बारिशों तक इंतज़ार हम करते रहे।
वो ना आए इस बार भी मगर पहले की तरह ।
अब के भी बरसीं हैं बारिशें फिर पहले की तरह ।
वो साथ नहीं हैं यूँ तो , कोई गम नहीं है मुझको ।
मुस्कराहटें "राज" की नहीं हैं अब मगर पहले की तरह।
यूँ तो कई फूल चमन में, खिल रहे हैं आज भी मगर ।
खुशबू किसी में नहीं है जो, पागल कर दे मुझको पहले की तरह।
अब के भी बरसीं हैं बारिशें फिर पहले की तरह ।
Monday, May 30, 2011
"एक पल में कई ज़िन्दगी जी जाऊं मैं.."
ख़ुशी का "एक आंसू" बन जाऊं मैं ।
चाहे अगले ही पल बह जाऊं।
एक पल में कई ज़िन्दगी जी जाऊं मैं ।
चाहे अगले ही पल फ़ना हो जाऊं मैं ।
यूँ ही गुज़र रही है ज़िन्दगी,
किसी काम आ जाऊं मैं ।
एक तारा हूँ टूटा हुआ,
किसी की मुराद बन जाऊं मैं।
हालातों की तेज़ तपन में ,
किसी पथिक के लिए ,
शीतल पवन बन जाऊं मैं।
जो समझे मुझे सच्चा दोस्त अपना,
उसके लिए हद से भी गुज़र जाऊं मैं।
यूँ ही गुज़र रही है ज़िन्दगी,
किसी काम आ जाऊं मैं । "
Friday, May 27, 2011
"इस तरह फिर दिल को सज़ा देते हैं...."
इस तरह फिर दिल को सज़ा देते हैं ,
गलती हम यह बार-बार करते हैं ,
आँखें रोती हैं फिर उम्र भर ,
लब मगर हमेशा मेरे मुस्कराते हैं। "
Saturday, May 14, 2011
"मुझको बहुत रुलाने वाले हैं..."
आसमान में छाये तो हैं।
बारिशों के मौसम आने वाले हैं,
मुझको बहुत रुलाने वाले हैं।
क्योकिं ,
बारिशों के मौसम में भीगना,
मुझे यूँ अच्छा लगता है,
हम कितना भी रो लें,
किसी को क्या पता चलता है।
Wednesday, May 11, 2011
"विशाल गगन में उड़ रहा एक पंछी अकेला....."
शाम होने को आई मगर,
कहाँ करे विश्राम , कोई नहीं उसका बसेरा।
वक्त ने काट दिए "पर" उसके,
होंसलों के परों से उड़ रहा , अब भी वह पंछी अकेला ।
उसके विशाल गगन में , ना सूरज है ना अब चंदा कोई ।
हर तरफ़ है बस अँधेरा ।
कहाँ करे विश्राम , कोई नहीं उसका बसेरा।
उड़ते- उड़ते ना जाने कैसे ,
यह कौन से शहर में आ गया वह ।
यूँ तो लाखों मकान है इस शहर में ,
और आसमान छूती इमारतें भी ।
जिस छत की मुंडेर पर सुकून से वह बैठ सके ,
घर उसके लिए एक भी ऐसा नहीं।
लहुलुहान है जिस्म उसका उड़ते-उड़ते,
लगता नहीं अब शायद ,
इस शहर में वह विश्राम कर पायेगा।
और साँसें इतनी भी बाकी नहीं,
कि वह वापस चला जायेगा।
उड़ते-उड़ते ही वह शायद , अब तो फ़ना हो जायेगा।
फिर यह शहर किसी नए पंछी की तलाश में,
फिर से आसमान में देखने लग जायेगा।
Saturday, May 7, 2011
"तन्हा ही यह सफर तय किया हमने..."
उन रास्तों पर ही कदम रखे हमने ।
जो पूरे हो नही सकते ,
ख्वाब वही देखे हमने ।
जो हम सुना नही सकते ,
गीत वही लिखे हमने ।
और जब दिल को लगी प्यास ,
ख़ुद के आंसू पीये हमने।
जो मंजिल पर कभी पहुँच नही सकते ,
उन रास्तों पर ही कदम रखे हमने।
खुदा बाँट रहा था जब खुशियाँ लोगों को,
नाम उसमे अपना नही लिखाया हमने ।
चंचल हवाओं ने हाथ पकड़ा तो बहुत था ,
फूलों के चमन में,खुशबुओं का मेला तो बहुत था
फिर भी कुछ गिला नहीं तुझसे मेरी जिंदगी ,
तन्हा ही यह सफर तय किया हमने ।
Friday, April 29, 2011
"परदेस में कहाँ अपने हैं...."
बिखरे-बिखरे से सपने हैं ।
सच कहते हैं लोग,
परदेस में कहाँ अपने हैं ।
Wednesday, April 27, 2011
"मेरी कवितायें अब वो पढ़ते नहीं हैं.."
मेरी कवितायें बहुत उदास हो गयी हैं ।
"तस्वीरो" के बिना, कविताओं में रंग नहीं हैं।
मेरी कवितायें अब वो पढ़ते नहीं हैं ।
जो मेरी "कविता" के मन को भाये,
ढूंढता हूँ बहुत, मगर "तस्वीर" मिलती नहीं हैं ।
मेरी कवितायें तन्हा हो गयी हैं ।
सागर की लहरें , अब किनारे तक आती नहीं हैं ।
मेरे मन को अब बहलाती नहीं हैं ।
खोया हूँ अपनी तन्हाईओं में इस कदर ,
कब ढलता है दिन, कब होती है रात ...
मुझे कुछ पता चलता नहीं हैं ।
मेरी कवितायें अब वो पढ़ते नहीं हैं ।
फिर भी उनमे ना जाने क्या बात है ।
उनके सिवा , कुछ याद रहता नहीं है ।
"तस्वीरों" के बिना कविताओं में रंग नहीं हैं ।
मेरी कवितायें अब वो पढ़ते नहीं हैं ।
"फिर भी कोई याद नहीं करता ..."
मरने वाले के साथ कोई नहीं मरता ।
सुना है लोग भूल जाते हैं मौत के बाद ,
यहाँ तो जिन्दा हैं फिर भी कोई याद नहीं करता ।
Friday, April 22, 2011
"आज एक किस्सा ख़त्म कर दिया मैंने...."
अपने जिस्म से दिल को अलग कर दिया मैंने।
आखों में आंसू आने की अब कोई बात नहीं,
अपनों से ख़ुद को अलग कर लिया मैंने।
जिन चिरागों को जलाने में जल गया हाथ मेरा,
उन चिरागों को आज बुझा दिया मैंने।
आज एक किस्सा ख़त्म कर दिया मैंने।
अपने जिस्म से दिल को अलग कर दिया मैंने।
अब ना लगे दिल पर कोई चोट नई,
यह सोचकर , दिल को पत्थर कर लिया मैंने।
डूबती है तो डूब जाने दो मंझधार में,
तूफानों में अपनी कश्ती को उतार दिया मैंने।
आज एक किस्सा ख़त्म कर दिया मैंने।
अपने जिस्म से दिल को अलग कर दिया मैंने।
ना रह पायेंगें आप सब के बिना ,
फिर भी यह कदम उठा लिया मैंने।
जिन दोस्तों की जान थे हम,
उन दोस्तों को आज छोड़ दिया हमने।
ऐ मेरे खुदा, अब तू ही बता क्या गुनाह किया था मैंने।
ऊँची- ऊँची इमारतों में रहने वालों के, कद हमेशा छोटे देखे मैंने।
आज एक किस्सा ख़त्म कर दिया मैंने।
अपने जिस्म से दिल को अलग कर दिया मैंने।
Wednesday, April 20, 2011
"तेरी यादों के कुछ पन्नों को ..."
समुन्दर में बहा दिया मैंने ।
अपने संग-संग, समुन्दर को भी रुला दिया मैंने ।
कुछ पन्नों को बहुत संभाल कर रखा है मैंने ।
सबकी नज़रों से छुपा कर रखा है मैंने ।
आंसुओं से लिखा है तेरी यादों पर,
ओंस की बूँदें हैं जैसे गुलाब पर ।
बहुत सारे पन्ने अभी लिखे बाकी हैं ।
मगर, कुछ बातें चाहकर भी लिख नहीं सकते ।
लगता है , अब सारे पन्ने कोरे ही रह जायेगें ।
यूँ तो हर रोज ही लिखता हूँ कुछ पन्ने मगर,
रोज कुछ नये पन्ने जुड़ जातें हैं तेरी यादों के ,
किताब लिख रहा हूँ तुम्हारी यादों पर,
मगर लगता नहीं कि किताब पूरी हो पायेगी ।
दिल की बातें दिल में ही रह जायेगीं ।
बहुत कुछ लिखना है तुम पर मगर,
मेरी यह ज़िन्दगी कम रह जायेगी ।
Tuesday, April 19, 2011
"घर में नहीं, अब मन लगता है..."
तुलसी का पौधा भी मुरझाया सा लगता है ।
ना जाने कैसी खामोशी है घर में ,
क्या हो गया यह कुछ ही दिन में ।
घर में नहीं, अब मन लगता है ।
घर अब खाली सा लगता है ।
दिल है मगर धड़कन नहीं ,
साज है मगर आवाज़ नहीं ,
सब कुछ सूना सा लगता है ।
घर में नहीं, अब मन लगता है ।
जीवन के इस नाजुक मोड़ पर,
तुम साथ छोड़ कर चले गये ।
बीते लम्हें जब याद आते हैं ,
आखों में आंसुओं का मेला लगता है ।
सब कुछ सूना सा लगता है ।
घर में नहीं, अब मन लगता है।
जीने को तो जी ही लेंगे हम मगर,
बिना तुम्हारे, यह जीवन
अब बोझिल सा लगता है ।
घर अब खाली सा लगता है ।
घर में नहीं, अब मन लगता है ।
Tuesday, March 29, 2011
"अपनी आखों में हजारों समुन्दर ले आये हम .."

जिस समुन्दर को रोज देखा करते थे हम ।
लहरों से खूब बातें किया करते थे हम ।
अब उन किनारों को दूर छोड़ आये हम ।
अपनी आखों में हजारों समुन्दर ले आये हम ।
दिल में आता हैं , सब कुछ भूल जाएँ हम ।
ना किसी को याद करें, ना किसी को याद आयें हम ।
मगर इन "यादों" को कहाँ ले जाएँ हम ।
अपनी आखों में हजारों समुन्दर ले आये हम ।
"यादें" सहारा होती है जीवन का ,
मेरे साथ रहती हैं हमेशा "यादें" और "हम" ।
पहले भी तन्हा थे और आज भी तन्हा हैं हम ।
अपनी आखों में हजारों समुन्दर ले आये हम ।
शिकवा नहीं किसी से ना शिकायत है कोई,
चलो, कुछ लम्हों के लिए तो मुस्करा लिये हम ।
उनकी "ख़ामोशी" , सब कुछ समझ गये हम ।
अपनी आखों में हजारों समुन्दर ले आये हम ।
Sunday, March 27, 2011
"Life is too short so live it...."

If it happens it happens.
Life is too short so live it and have no regrets because if you make excuses or are afraid, you might miss out on something that you may really love and regret it that you never did it.
Embrace every single moment in your life and every single person you meet because you never know when they will suddenly stop being in your life ...forever.
Real true friends are people that come into your life and take up a special place in your heart, never to be replaced or forgotten even as time passes.
"Hearts will never be practical until they are made unbreakable.
The reason it hurts so much to separate is because our souls are connected.
"Just don't give up trying to do what you really want to do. Where there's love... and inspiration, I don't think you can go wrong."
Tuesday, March 22, 2011
हमारे घर का "उत्सव" - हमारा प्यारा "शानू"....

ना गुब्बारे , ना खिलोने , ना उसे मिठाई चाहिये।
हमसे ना उसको कोई तोहफा चाहिये ।
खुशियों का बस उसे साथ चाहिये ।
आप सबकी दुआओं में असर चाहिये ।
खूब भीगता है वह , बारिशों के मौसम में ;
इन्द्रधनुष के रंगों को देखने के लिए मगर,
आखों में "उसे" रौशनी चाहिये।
आप सबकी दुआओं में असर चाहिये ।
लिखे हुए से ज़्यादा कोई जी सकता नहीं,
अपनी ज़िन्दगी के सारे लम्हें ,
चाहकर भी मैं उसे दे सकता नहीं...
बस में होता हमारे अगर,
फिर कोई कभी मरता नहीं,
कुदरत का कोई करिश्मा चाहिये।
आप सबकी दुआओं में असर चाहिये ।
हारना उसने ना सीखा है कभी,
मुस्कारते हुए जीता है वह हर लम्हें सभी,
ज़िन्दगी जीने की उस जैसी ,बस ललक चाहिये।
आप सबकी दुआओं में असर चाहिये ।

Saturday, March 19, 2011
"कई दिनों के बाद जब हम अपने घर आये...."

कई दिनों के बाद जब हम अपने घर आये,
वक्त ने बदल दिया मेरा चेहरा कुछ इस तरह,
घर के दरवाजों को भी हम मेहमान नजर आये ।
घर की हर चीज़ ने पूछा, मेरे करीब आकर
आप क्यों इतने महीनों बाद आये ।
दीवारें भी मिली जी भर के गले मुझसे,
फिर देर रात आसमान से चंदा और तारे
मुझसे मिलने मेरे घर की छत पर आये ।
कई दिनों के बाद जब हम अपने घर आये,
वक्त ने बदल दिया मेरा चेहरा कुछ इस तरह,
घर के दरवाजों को भी हम मेहमान नजर आये ।
Monday, March 14, 2011
"भीड़ भरे रास्तों पर अजनबी सी शाम है...."

गुमसुम सी है दिल की धडकनें ,
और खोयी-खोयी सी शाम है ।
तन्हाई है अब साथी मेरी,
आंसुओं में भीगी हुई सी शाम है ।
दो कदम चलकर ठहर गये उनके कदम ,
भीड़ भरे रास्तों पर अजनबी सी शाम है ।
गहराने लगा है अँधेरा अब उदासियों का ,
"राज" से बिछुड़ती हुई सी शाम है ।
ज़िन्दगी में अब साँसों का भरोसा नहीं,
रेत की तरह हाथों से फिसलती हुई सी शाम है ।
गुमसुम सी है दिल की धडकनें ,
और खोयी-खोयी सी शाम है ।
Saturday, March 12, 2011
"तब गीत मेरे गुनगुनायेंगे लोग......."

कोई किसी को याद नहीं करेगा ,
यह ग़लत कहते है लोग।
ज़िन्दगी भर याद आयेगें ,
मुझे आप सब लोग।
शायद मुझे भी याद करेंगे ,
मेरे जाने के बाद "कुछ" लोग।
जब खामोश हो जाऊंगा मै ,
तब गीत मेरे गुनगुनायेंगे लोग।
चला जाऊंगा इस शहर से जब मै,
मेरे कदमों के निशान ढूढेंगे लोग।
मैं हूँ एक पेड़ चंदन का,
इसलिए मेरे करीब नहीं आते है लोग।
पत्थर पर घिस कर, जब मिट जाऊंगा मै,
तब मुझे माथे पर लगायेंगे लोग।
आसमान से टूटता हुआ तारा हूँ,
एक दिन टूट जाऊंगा मै ।
खुशी बहुत है , इस बात की "राज" को मगर
देखकर मुझे, अपनी मुरादें पूरी कर लेंगे लोग।
बस "अपने" नहीं हैं.....
बस "अपने" नहीं हैं ।
कुछ दिनों से ना जाने,
क्या हुआ है मुझे ;
आखों में आंसू ,
अब रुकते नहीं हैं।
शायद, कोई नाराज़ है मुझसे;
इतने बुरे तो हम नहीं हैं ।
सब कुछ है परदेस में,
बस "अपने" नहीं हैं ।
Thursday, March 10, 2011
"घर जाने के दिन जब करीब आने लगे..."

आँगन के पौधे बहुत याद आने लगे,
अब तो कुछ बड़े हो गए होंगे ,
शायद मेरे काँधे तक आते होंगे।
सूरज की तेज तपन में थोड़े झुलसे तो होंगे,
बारिशों के मौसम में बहुत भीगे तो होंगे,
जाडों की सर्द हवाओं में भी स्कूल गए तो होंगे।
लगता है वक्त की आग में तप कर ,
अब तो "सोना" बन गए होंगे।
अब तो कुछ बड़े हो गए होंगे ,
शायद मेरे काँधे तक आते होंगे।
वो मुझे बहुत याद करते तो होंगे,
कलेंडर को बार-बार देखते तो होंगे।
आंखों से आंसू थम तो गए होंगे,
लोरियों के बिना ही, अब सो जाते तो होंगे।
पर शायद कभी -कभी रातों को, वो जागते तो होंगे।
आँधियों का सामना वो करते तो होंगे,
पतझड़ के मौसम में तोडे टूटते तो होंगे,
बसंत ऋतू में हर तरफ़ महकते तो होंगे।
लगता है हर मौसम में ढल कर अब तो,
मेरे लिए "कल्पवृक्ष" बन गए होंगे।
अब तो कुछ बड़े हो गए होंगे ,
शायद मेरे काँधे तक आते होंगे।
नाज़ुक सी टहनियों पर नन्ही-नन्ही पत्तियां,
वो खिलती कलियाँ , घर में आती ढेरों खुशियाँ
उनकी खुशियों में सब खुश तो होंगे,
सारी बातों को अब वो समझते तो होंगे।
लगता है जिन्दगी के इम्तहान में पास होकर,
मेरे लिए "कोहिनूर" बन गए होंगे । "
Friday, March 4, 2011
ना जाने कहाँ से आ जाते हो ,तुम मित्र मेरे !

जब वक्त के दो राहे पर,
ठहर जाते हैं कदम मेरे,
आकर रास्ता दिखा जाते हो ।
ना जाने कहाँ से आ जाते हो ,
तुम मित्र मेरे !
हालातों के बिखरते हुए पलों में,
जब आंसुओं से भीगने लगते हैं नैन मेरे,
आकर मेरे लिए "कान्धा" बन जाते हो ।
ना जाने कहाँ से आ जाते हो ,
तुम मित्र मेरे !
जब कभी कुछ कहते - कहते
लड़खडाने लगते हैं होंठ मेरे,
आकर "नए शब्द" दे जाते हो।
ना जाने कहाँ से आ जाते हो ,
तुम मित्र मेरे !
उदासी से भरी ज़िन्दगी में,
कोई नहीं देता जब साथ मेरा,
मेरे संग होने का "आभास" दिला जाते हो।
ना जाने कहाँ से आ जाते हो ,
अपनेपन का अहसास दे जाते हो।
ना जाने कहाँ से आ जाते हो ,
तुम मित्र मेरे !
"कल रात समुन्दर बहुत रोया है शायद..."
दोपहर तक किनारे की सारी रेत भीगी हुई थी।
वह पढने लगे है अब मेरी कहानियाँ,
दिल के कागज़ पर अब तक जो लिखी हुई थी ।
सुलझने लगी है अब ज़िन्दगी की पहेलियाँ ,
बरसों से अब तक जो उलझी हुई थी ।
एक डायरी के पन्नों को लगे हैं हम पलटने,
एक जमाने से , अलमारी में जो रखी हुई थी ।
Thursday, February 24, 2011
"दूर रह कर भी दूर नहीं हूँ ..."

"दूर रह कर भी दूर नहीं हूँ ।
क्या हुआ जो करीब नहीं हूँ ।
दूर से ही सुन रहा हूँ ,
आपके दिल की धडकनें.....
खामोश रहता हूँ मगर,
हालातों से अन्जान नहीं हूँ ।
सब ठीक होगा एक दिन ,
बस थोडा इंतज़ार करना ,
तूफानों से जो हार जाये,
मैं वो इंसान नहीं हूँ । "
Friday, February 18, 2011
"मेरी आखों में आंसू भर आये ..."

कुछ दिनों के लिये मुंबई शहर क्या छोड़ आये ।
लहरें और समुन्दर के किनारे बहुत याद आये ।
अपनी भी ज़िन्दगी बड़ी अजीब है दोस्तों ,
राह में हर दिन एक नया मोड़ आये ।
न जाने कैसा चमन है यह फूलों का ,
छुआ जब, तो अहसास चुभन का आये ।
जब भी कोशिश की मैंने मुस्कराने की ,
मेरी आखों में आंसू भर आये ।
अपनी कहानी उन्हें सुनाते भी तो किस तरह ,
वह भी अपने काम में बहुत व्यस्त नज़र आये ।
अपनी भी ज़िन्दगी बड़ी अजीब है दोस्तों ,
राह में हर दिन एक नया मोड़ आये ।
Thursday, February 17, 2011
"मिट्टी के खिलोने......."

"छुपा कर रखी थी बातें सारी।
खिलोने ने कह दी कहानी सारी"
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"मेरी ज़िन्दगी के रंग,
इन्द्रधनुषी नहीं तो क्या,
मटमैले तो हैं ।
पापा के साथ मेले जा रहे बच्चे ,
खुश होते तो हैं।
"बैटरी वाली कार अच्छी नहीं",
मेरे कहने का मतलब,
बच्चे समझते तो हैं।
कार को देखकर मचलने पर,
बड़े ने छोटे को समझाया,
भैया , आगे दुकानें और भी तो हैं।
मेले से खुश होकर लौट रहे ,
मेरे बच्चों के हाथों में ,
बैटरी वाली कार नहीं तो क्या,
मिट्टी के कुछ खिलोने तो हैं।
मेरी ज़िन्दगी के रंग,
इन्द्रधनुषी नहीं तो क्या,
मटमैले तो हैं । "
Sunday, February 13, 2011
"दास्ताँ यह लम्बी है बहुत ..."
समुन्दर किनारे बैठकर , लहरों से बातें की बहुत ।
सांझ ढले अपने घर जाता सूरज, लौटते पंछी याद आये बहुत ।
बातें थी कुछ ख़ास दिल में ही रहीं, कहनी थी जो उनसे बहुत ।
खुद से करते रहे हम बातें, कभी रोये कभी मुस्कराये बहुत ।
कालेज के दिन, कैंटीन और "दोस्त" याद आये बहुत ।
दिल के बागवां से, यादों के फूल समेट लाये बहुत ।
आज भी आती है , उन फूलों से खुशबू बहुत ।
तितलियाँ, फूल और यादें , मेरे जीने के लिए हैं बहुत ।
और क्या कहें अब जाने दो , दास्ताँ यह लम्बी है बहुत ।
Wednesday, February 9, 2011
"बच्चों के संग खेलने को जी चाहता है..."

कल शाम बातों-बातों में ,
आखों से कहने लगे मेरे आंसू ;
और सब्र होता नहीं,
अब "बरस" जाने को जी चाहता है ।
परदेस में हो गये अब बहुत दिन,
अब घर जाने को जी चाहता है ।
पार्क में खेलते बच्चे,
घर की याद दिला जाते हैं ।
बच्चों के संग खेलने को जी चाहता है ।
पार्क के सामने गुब्बारे के लिये,
किसी बच्चे को रोता देखकर ,
सारे गुब्बारे उसके लिये खरीदकर,
उसको हंसाने को जी चाहता है ।
परदेस में हो गये अब बहुत दिन,
अब घर जाने को जी चाहता है ।
पार्क में खेलते हुये बच्चे जब गिर जाते हैं ।
दौड़कर उन्हें उठाने को जी चाहता है ।
खेल-खेल में जब समुन्दर किनारे पहुँच जाते हैं बच्चे,
उन्हें आवाज़ देकर रोकने को जी चाहता है ।
परदेस में हो गये अब बहुत दिन,
अब घर जाने को जी चाहता है ।
कुछ देर बच्चों के संग खेलने को जी चाहता है ।
(आभार : फोटो गूगल )
Tuesday, February 8, 2011
"शब्दों का अतुल भण्डार दो माँ ..."

शब्दों का अतुल भण्डार दो माँ,
लेखनी को नए विचार दो माँ।
इतना मुझ पर , उपकार करो माँ।
जीवन मेरा संवार दो माँ।
अनुभूतियों को सार्थक रूप दो माँ।
सृजन को व्यापक स्वरुप दो माँ।
जीवन मेरा संवार दो माँ।
बेरंग शब्दों में , रंग भर दो माँ।
शब्दों को नए अर्थ दो माँ।
"शलभ" को नए आयाम दो माँ।
जीवन मेरा संवार दो माँ।
शब्दों का मुझे उपहार दो माँ।
कुछ ऐसा लिखूं, सबको निहाल कर दूँ माँ।
इतना मुझपर उपकार करो माँ।
जीवन मेरा संवार दो माँ।
Monday, February 7, 2011
"मुझ से बातें किया करो...."

हज़ार गम हैं ज़िन्दगी में,
किसी से शिकवे-शिकायत क्या करो ?
दुनिया लगे जब अजनबी सी,
मुझ से बातें किया करो ।
शायद, कुछ कह रहीं हैं धड़कने ;
कभी अपने दिल की कहानी सुना करो ।
जब नींद न आये रातों में ,
मेरी यादों को अपने सिरहाने रखा करो ।
हर रोज ख्वाबों में हम आयेगें ,
थोड़ी जगह छोड़ कर सोया करो ।
जो कुछ कहना है मुझसे,
सारी बातें कह दिया करो ।
अकेले होकर भी , अकेले नहीं हो तुम
अपने आसपास , मुझे महसूस किया करो ।
मैंने वही किया जो था मेरे लिए ज़रूरी ,
वक्त की थोड़ी मजबूरियां समझा करो ।
Saturday, February 5, 2011
"खुले मन से सबसे मिलना चाहिये...."
"एक सा दिल सबके पास होता है..."
Wednesday, February 2, 2011
"मेरी आंखों में है समंदर ,किसी ने न जाना ...

टूटने से है अच्छा है बिखर जाना ।
ऐ-मेरे "दोस्त" अब मुझे ,
कभी महफिल में ना बुलाना ।
टूटे हुए टुकड़े, फिर आंखों में चुभते हैं ,
बहुत मुश्किल होता है फिर ,
आंसुओं को रोक पाना ।
“फ़रिश्ता ” बनकर तो, न जा सकेंगे;
बुरा बनकर हो जाएगा आसान,
सबके लिए फिर मुझे भूल जाना ।
टूटने से बेहतर है , बिखर जाना।
लहरों की भी हम कहाँ सुनते हैं ,
अपनी तो आदत है ,
तूफानों में कश्ती ले जाना ।
चाँद बेवजह ही खुश है ,
उधार की रौशनी पर ,
“सूरज” की तो आदत है ,
शाम होते घर जाना ।
मुस्कारते हुए लब तो देखे है सबने ,
मेरी आंखों में है समंदर ,किसी ने न जाना ।
टूटने से है अच्छा है बिखर जाना ।
Sunday, January 30, 2011
"कभी "अलविदा" न कहना ....."

दुनिया में सबसे कीमती हैं आपके आंसू,
नैनों से कभी, इनको छलकने न देना ।
पलकों के बीच आकर भी अक्सर टूट जातें हैं,
"ख्वाबों" को अपने, बहुत संभालकर रखना ।
रिश्ते महकते हैं, "अपनेपन" के अहसास से ;
इनकी "खुशबुओं" को महसूस उम्रभर करना।
संग-संग- न चलना, चाहे बात न करना ।
एक ज़रा सी है गुज़ारिश, कभी "अलविदा" न कहना।
Sunday, January 23, 2011
"पेड़ से टूटे हुये सूखे पत्ते..."

मेरे बराबर वाली बिल्डिंग में ;
लगे हुए बादाम के पेड़ के
बहुत सारे सूखे पत्ते
मेरे कमरे के दरवाजे के सामने ,
आजकल रोज ही आ जाते हैं ।
आवाज़ देकर मुझे बुलाते हैं ।
फिर घंटों मुझसे बतियातें हैं ।
मेरे दिल की सुनते हैं ,
कुछ अपनी कहानी सुनाते हैं ।
पेड़ से टूटे यह "सूखे पत्ते" ,
इस अजनबी शहर में,
अपनेपन का अहसास दिला जाते हैं ।
मेर सच्चे दोस्त जो बन जाते हैं।
ना जाने कौन से रिश्तों में मुझे बाँध लिया है ।
पैरों के नीचे न आ जाये कहीं ;
अपने हाथों से समेट कर ,
एक सुरक्षित जगह रख देता हूँ।
मगर, समुन्दर से आनी वाली हवायें बहुत बेदर्द हैं ।
ना ही इनके मन में किसी के लिये दर्द है ।
समेटे हुए सारे पत्तों को ,
एक-एक करके बिखरा देती है ।
ना जाने कहाँ - कहाँ उड़ा देती है ।
समेट नहीं पाता फिर मैं उन पत्तों को ,
भीगे नैनों से उन्हें दूर जाते हुये ,
बस देखता रह जाता हूँ ।
हर बार की तरह ,
एक बार फिर से "तन्हा" हो जाता हूँ ।
Friday, January 21, 2011
"कुछ दिनों से "चांदनी" बहुत उदास है ..."

कुछ दिनों से "चांदनी" बहुत उदास है ।
इस बात का "चाँद" को अहसास है ।
गुज़रती है रात करवट बदल-बदल कर,
बिना कुछ कहे, सब कुछ समझने का अहसास है ।
गुमसुम सी रात है , ना जाने क्या बात है ।
रजनीगंधा सी महकती हुई किसी की याद है ।
कुछ दिनों से "चांदनी" बहुत उदास है ।
इस बात का "चाँद" को अहसास है ।
सारे तारे कुछ बोल रहे हैं ।
दिल का हाल पूछ रहे हैं ।
"चांदनी" मगर खामोश है ।
"चाँद" को पता है किस्सा सारा ,
भीगी पलकों ने कह दिया हाल सारा,
समुन्दर के शहर में, समुन्दरों सी प्यास है ।
कभी लगता है बहुत दूर है वह,
और कभी लगता है वो बहुत पास है ।
कुछ दिनों से "चांदनी" बहुत उदास है ।
इस बात का "चाँद" को अहसास है ।
Tuesday, January 18, 2011
"कल बड़े बेटे का ख़त मिला मुझे, लगता है सचमुच बड़ा हो गया है।"

कल बड़े बेटे का ख़त मिला मुझे, लगता है सचमुच बड़ा हो गया है।
लिखा है - छोटा भाई मेरा कहना मानने लगा है।
पहले आपकी उँगलियाँ पकड़कर चलते थे हम दोनों,
अब वह , मेरी ऊँगली पकड़कर चलने लगा है।
आपके पीछे हम कम झगड़ते हैं , सारे बातें ख़ुद ही निबटातें हैं।
हमे मालूम है, मम्मी हमारी शाम को किससे शिकायत करेगी ?
और यहाँ सब ठीक है मगर, मम्मी कभी-कभी बहुत उदास हो जाती है।
यूँ तो हँसा देते हैं हम उनको मगर,
तकिये में चेहरा छिपा कर फिर वो सो जाती हैं।
कल बड़े बेटे का ख़त मिला मुझे, लगता है सचमुच बड़ा हो गया है।
जब कभी चाचू , दादा जी का कहना नहीं मानते हैं,
उस दिन आप , सबको बहुत याद आते हैं।
आप थे तो आँगन में रखे पौधे भी,हर मौसम में हरे भरे रहते थे।
आप नहीं तो इन बरसातों में भी, सारे फूल मुरझाये से रहते हैं।
कल बड़े बेटे का ख़त मिला मुझे, लगता है सचमुच बड़ा हो गया है।
वैसे तो आपकी "बाइक" चलाना सीख गया हूँ मगर,
भीड़ भरी सड़कों पर आप बहुत याद आते हैं।
स्कूल की फीस , ख़ुद जमा कर देता हूँ
"रिपोर्ट कार्ड" पर भी मम्मी साइन कर देतीं हैं मगर,
"पेरेंट्स मीटिंग्स" में आप बहुत याद आते हैं।
और यहाँ सब ठीक है मगर.......
कल बड़े बेटे का ख़त मिला मुझे, लगता है सचमुच बड़ा हो गया है।
और पापा , कल तो "एच पी" की गैस भी बुक कराई मैंने
यूँ तो टेलीफोन और बिजली का बिल भी जमा कर सकता हूँ
मगर, घर से ज्यादा दूर मम्मी भेजती नहीं हैं।
यूँ तो मम्मी हर चीज दिला देती हैं, कभी-कभी हम जिद कर जाते हैं।
और यहाँ सब ठीक है मगर ........
"डेरी मिल्क " अब कम खा पाते हैं।
कल बड़े बेटे का ख़त मिला मुझे, लगता है सचमुच बड़ा हो गया है।
अक्सर , देर रात फ़ोन आपका आता है ।
हम जल्दी सो जाते हैं , मम्मी सुबह बताती हैं।
कभी दिन में भी फ़ोन किया करो, बच्चों की बातें सुना करो।
अच्छा , यह लिखना पापा अब कब आओगे ?
होली पर घर आ जाना ।
मम्मी को "रंग" अब नहीं भाते हैं।
"रंग" तो आप ही दिलाना।
होली पर घर आ जाना ।
Friday, January 14, 2011
"कविता लिखना कोई बड़ी बात नहीं है मगर..."
दिल की बात, हर किसी से कही नहीं जाती।
कविता कहना कोई बड़ी बात नहीं है मगर,
कह देते है हम कविता तब,
जब दिल की बात लबों तक नहीं आती।
कविता, हर किसी पर लिखी नहीं जाती,
अधूरे रहते है शब्द सारे कविता के,
पंक्तियाँ जब तक अपनेपन का अहसास नहीं पातीं।
कविता लिखना कोई बड़ी बात नहीं है मगर,
लिख पाते हैं हम कविता तब,
जब तक वो निगाहें ,
प्रेरणा बनकर दिल में बस नहीं जाती।
कविता, हर किसी को समझ नहीं आती ।
क्योकिं , दिल से लिखी जाती है
कविता दिमाग से लिखी नही जाती,
दिल वाले ही लिखते है ,
दिल में रहने वालों पर कवितायें ,
यह दिल वालों की ऐसी बस्ती है,
दिल के सिवा कहीं और बसाई नहीं जाती।
Wednesday, January 12, 2011
"कल शाम तन्हाइयों का आलम , कुछ इस कदर रहा .."

कल शाम तन्हाइयों का आलम ,
कुछ इस कदर रहा ।
कई घंटों तलक खुद ही मैं ,
अपने आप से बेखबर रहा ।
जाना था कहाँ, कदम गये किधर ।
ना जाने क्यों ,
रेत पर नगें पैर , मीलों चलता रहा ।
मैं इधर चलता रहा ,
सूरज उधर ढलता रहा।
कल शाम तन्हाइयों का आलम ,
कुछ इस कदर रहा ।
कई घंटों तलक खुद ही मैं ,
अपने आप से बेखबर रहा ।
यूँ तो कोई साथ नहीं था मेरे,
मगर ना जाने क्यों ,
मुझे यह महसूस होता रहा ।
कोई बार-बार मेरे पीछे आता रहा ।
मुड़ कर देखा जब भी मैंने,
कोई नहीं आता था नज़र।
बस उसके कदमो के निशान ,
आते थे मुझे नज़र ।
मगर अब मैं समझ गया था,
वह कोई अजनबी नहीं था।
किसी की यादों का साया था ।
कुछ नहीं कहा मैंने,
बस , अपने रस्ते चलता रहा ।
कल शाम तन्हाइयों का आलम ,
कुछ इस कदर रहा ।
कई घंटों तलक खुद ही मैं ,
अपने आप से बेखबर रहा ।
Sunday, January 9, 2011
"अजनबी शहर में, "अपनेपन" का अहसास हुआ है ..."

कुछ दिनों में मुझे यह आभास हुआ है ।
दूर समुन्दर , अब बहुत पास हुआ है ।
अजनबी शहर में, "अपनेपन" का अहसास हुआ है ।
सोचा था लौट जायेगें कुछ दिनों में ,
उम्रभर रहने का अब मन हुआ है ।
दूर समुन्दर , अब बहुत पास हुआ है ।
बे-इरादा जी रहे थे अब तक ,
अब कुछ कर गुजरने का मन हुआ है ।
अजनबी शहर में, "अपनेपन" का अहसास हुआ है ।
मिलना बिछुड़ना , फिर बिछुड़ कर मिल जाना ।
ज़िन्दगी में एक नया इत्तफाक हुआ है ।
कुछ दिनों में मुझे यह आभास हुआ है ।
दूर समुन्दर , अब बहुत पास हुआ है ।
अजनबी शहर में, "अपनेपन" का अहसास हुआ है ।
(फोटो आभार : गूगल के सौजन्य से)
Monday, January 3, 2011
"ऐ - वक्त मेरे, तू बार-बार मेरा इम्तहान क्यों लेता है .."

ऐ - वक्त मेरे, तू बार-बार मेरा इम्तहान क्यों लेता है ?